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जैनराजतरंगिणी
[१:१:१७१-१७४ मा बाधिष्ट सुतं कश्चिन्मत्परो वातिविह्वलः ।
इति कारुणिको राजा न्यवर्तत रणाद् द्रुतम् ।। १७१ ॥ १७१. 'मेरे पक्ष का कोई पुत्र का वध' न करे'-इस प्रकार अतिविह्वल होकर, दयालु राजा युद्ध से शीघ्र परावृत हो गया।
आसिष्ये सुखितः सुतार्पितभरो बुद्धेति दत्ता निजा
राष्ट्रेशा वरसेवकाः सतुरगाः संवर्धिता ये मया । तेऽमी राज्यजिहीपेवः सुतरता युद्धाय मय्यागता
धिमां येन नयोज्झितेन घृणयानर्थः स्वयं स्वीकृतः।। १७२ ।। १७२. सुतपर भार रखकर, सुख से रहूंगा, यह विचार कर, अपने जनों को राजपुरुषों जो अश्व तथा लोगों से घिरे रहते थे, अपने प्रिय मुख्य सेवकों को राष्ट्र का स्वामित्व दिया, परन्तु धिक्कार है, वे उससे लड़ने आये। उसने स्वयं अपने को दोष दिया कि अपनी कृपा में उसने विवेक से काम नहीं लिया।
इत्यादि विमृषन् राजा स्वपुरं दुःखितोऽगमत् ।
विरोधादायिनो निन्दन् सेवकान् विधिकर्मणा ।। १७३ ॥ १७३. इस प्रकार विचार करते तथा विरोधियों की निन्दा करते हुये, दुःखित राजा अपने नगर गया।
संग्राममृतवीरेन्द्रच्छिन्नमस्तकपङ्क्तिभिः ।
आनीय राजा नगरे मुखागारमकारयत् ।। १७४ ॥ १७४. राजा ने नगर' में लाकर, संग्राम में मृत बीरों के छिन्न मस्तक पक्तियों से मुखागार (मीनार) का निर्माण कराया। पाद-टिप्पणी:
पाद-टिप्पणी: १७१. (१) वध = आदम खाँ पीछा कर रहा
१७४. बम्बई तथा कलकत्ता संस्करणों मे 'सुखाथा । अतएव सुलतान हाजी खाँ के जीवन बचाने की
गार' शब्द है । शत्रुओं के मुण्डों को देखकर सुख दृष्टि से आदेश दिया कि कोई भी हाजी खाँ का वध
मिलता था। अतएव 'सुखागार' भी अर्थ हो सकता न करे ( म्यूनिख पाण्डु० : ७५ ए. बी.,)।
है । परन्तु 'मुखागार' अधिक अभीष्ट है । मुसलमानों
में शत्रुओं के मुण्डों को एकत्र कर मीनार बनाना तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-आदम खाँ ने साधारण प्रथा थी। अतएव मुखागार मानकर अर्थ उसका पीछा किया और उसे (हाजी खाँ) बन्दी किया गया है। बना लेने का प्रयत्न किया किन्तु सुलतान ने उसे इस
(१) नगर = श्रीनगर। बात की आज्ञा न दी ( ४४३ = ६६४)।
(२) मुखागार = यह मीनार है। मुसलिम फिरिस्ता लिखता है-आदम खाँ ने हरपुर से देशों तथा सुलतान अपने विरोधियों को मारकर हाजी खाँ का पीछा किया किन्तु पिता ( सुलतान) उनके मुण्डों पर मीनार बनाते थे। वे विजयस्तम्भ ने उसे और पीछा करने से मना कर दिया (४७२)। के प्रतीक मान लिये जाते थे।