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अथ
श्रीवरपण्डितकृता
जैनराजतरंगिणी
प्रथमतरंगः
प्रथमः सर्गः
शिवायास्तु नमस्तस्मै त्रैलोक्यै महीभुजे । अशेषक्लेशनिर्मु क्तनित्यैश्वर्य दशाजुषे
॥ १ ॥
१. अंशेष क्लेश, निर्मुक्त, नित्य ऐश्वर्य से युक्त, त्रैलोक्य महीभुज, उस शिव को नमस्कार हो
प्रेम्णार्थं वपुषो विलोक्य मिलितं देव्या स स्वामिनो
मौलौ यस्य निशापतिर्नगसुतावेणीनिशामिश्रितः । आस्ते स्वाम्यनुवर्तनार्थमिव तत् कृत्वा वपुः खण्डितं देयादद्वयभावनां स भगवान् देवोऽर्धनारीश्वरः ॥ २ ॥
उपोद्घातः
२. प्रेम से स्वामी के शरीर का अर्धांग, देवी से मिला देखकर, नगसुता की वेणी रूप निशा से मिश्रित, निशापति स्वामी का अनुवर्तन करने के लिये ही मानो शरीर खण्डित कर, जिसके शिखर स्थित हैं, वह भगवान् देव अर्धनारीश्वर', अद्वैत' भावना दें ।
पाद-टिप्पणी :
पाठभेद : बम्बई में 'अथ श्रीवरकृता तृतीया तथा प्रथम तरंग के नीचे 'प्रथमः सर्गः' लिखा मिलता है ।
पाद-टिप्पणी :
२. ( १ ) अर्धनारीश्वर : अर्धनारीश्वर की विभिन्न मूर्तियां भारतवर्ष तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में मिलती है। एक प्रभावोत्पादक मूर्ति एलोरा के कैलाश मन्दिर में है । अब तक मिली सबसे प्राचीन मूर्ति मथुरा संग्रहालय में कुषाणकालीन प्रथम
शताब्दी की है । यह पुरुष - प्रकृति के द्वैत रूप के स्थान पर अद्वैत का रूप है। जहाँ नर-नारी, शक्ति एवं शिव का रूप मिलकर एक हो जाता है। पुराणों की मान्यता के अनुसार शक्ति की उपासना करने के कारण शिव का अर्धनारीश्वर रूप हो गया है ( ब्रह्मा० : २ : २७ : ९८; ४ : ५. ३० ४४ : ४८ ) । मत्स्यपुराण मे अर्धनारीश्वर के रूप तथा उनके वस्त्रों आदि का वर्णन किया गया है (मत्स्य० : ६० : ३५; १९२ : २८; २६० : १ - १० ) । कथा है कि ब्रह्मा ने प्रजा उत्पत्ति के लिये तपस्या की । शंकर प्रसन्न