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१ : १ : १५-१८ ]
श्रीवरकृतां
सकलं चित्रपटान्ते त्रिजगद्यथा । श्रीजैनोल्लाभदीनस्य न्यस्यामि गुणवर्णनम् ॥ १५ ॥
१५. तथापि चित्रपट पर सम्पूर्ण त्रिजगत' की तरह, जैनोलाभदीन का गुण वर्णन अंकित कर रहा हूँ ।
तथापि
केनापि हेतुना तेन प्रोक्तं मद्गुरुणा न यत्
तच्छेषवर्तिनीं वाणीं करिष्यामि यथामति ॥ १६ ॥
१६. किसी कारण से मेरे गुरु ' ने जिसे नही कहा ( लिखा था, उस अवशिष्ट वाणी को यथामति लिखूँगा ।
सात्मजस्य नृपस्यास्य प्राप्यते राज्यवर्णनात् । प्रतिष्ठादानसम्मानविधानगुणनिष्कृतिः
१७. आत्म' सहित इस नृप े के राजवर्णन से ( राजप्राप्त) प्रतिष्ठा, दान, सम्मान, विधान एवं गुणों से निष्कृति प्राप्त की जा सकती है ।
स्वदृग्दृष्टमृतानेकविपद्विभवसंस्मृतेः
सूते कस्य न वैराग्यं नाम जैनतरङ्गिणी ॥ १८॥
१८. अपनी दृष्टि से दृष्ट, मृतों एवं अनेक विपत्ति तथा वैभव के संस्मरण से, जैन-तरंगिणी' किसमें वैराग्य नहीं पैदा कर देगी ?
पाद-टिप्पणी :
१५. (१) त्रिजगत : (१) स्वर्ग, (२) भू तथा (३) पाताल लोक ।
पाद-टिप्पणी :
१६. (१) गुरु : जोनराज । पाद-टिप्पणी :
१७. भावार्थ : राजा तथा उसके प्राप्त प्रतिष्ठा, दान, सम्मान, विधान एवं किस प्रकार उऋण हो सकता हूँ ?
॥ १७ ॥
पुत्रों द्वारा गुणों से
(१) आत्मज: हैदरशाह । (२) नृप : जैनुल आबदीन । पाद-टिप्पणी :
१८. (१) जैन-तरंगिणी : श्रीवर स्वकृत राजतरंगिणी का नाम 'जैनतरंगिणी' लिखता है । कल्हण ने अपने ग्रन्थ का शीर्षक केवल राजतरंगिणी
दिया है। जोनराज भी अपनी कृति का शीर्षक 'राजतरंगिणी' ही दिया है । श्रीवर ने सुलतान जैनुल आवदीन के नाम पर अपनी राजतरंगिणी का नाम 'जैनराजतरंगिणी' रखकर सुल्तान को प्रसन्न करने का प्रयास किया हैं । यह राजकवि के अनुरूप ही है | तत्कालीन संस्कृत तथा अन्य भाषा - कवि अपने संरक्षक, अभिभावक एवं राजा की स्मृति चिरस्थाई रखने के लिये राजा के नाम पर काव्य का नाम रखते थे । विल्हण ने 'विक्रमांकदेवचरित', चन्द ने 'पृथ्वीराज रासो', नरपति नाल्ह ने 'बीसलदेव रासो (सन् १२८१ ई०), 'हम्मीर रासो' (सन् १२९३ ई० ) आदि ग्रन्थ राजाओं के नाम पर श्रीवर के पूर्व लिखे जा चुके थे । मुसलमान कवियों ने भी बादशाहों, नवाबों, अभिभावकों एवं संरक्षकों के नाम पर रचनाएँ की है । उनमे न्यामत खां 'जान' का 'कायम रासो' प्रसिद्ध है ।