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१:१:६-९]
श्रीवरकृता श्रीजोनराजविबुधः कुर्वन्नराजतरङ्गिणीम् ।
शायकाग्निमिते वर्षे शिवसायुज्यमासदत् ॥ ६॥ ६. राजतरंगिणी' की रचना करते हुए, विद्वान जोनराज ने ३५ ३ वर्ष शिवसायुज्य प्राप्त किया।
शिष्योऽस्य जोनराजस्य सोऽहं श्रीवरपण्डितः ।
राजावलीग्रन्थशेषापूरणं कर्तुमुद्यतः ७. इसी जोनराज का शिष्य मैं श्रीवर' पण्डित राजावली' ग्रन्थ के शेष को पूर्ण करने के लिये उद्यत हूँ।
क्व काव्यं मद्गुरोस्तस्य क्व च मन्दमतेर्मम ।
वर्णमात्रेण मक्कोलं धनसारायते कथम् ।। ८ ॥ ८. कहाँ मेरे उस गुरु का काव्य और कहाँ मन्दमति मेरा वर्णमात्र की समानता से अकोल (खड़िया) क्या कर्पूर हो सकता है ?
राजवृत्तानुरोधेन न काव्यगुणवाञ्छया ।
सन्तः शृण्वन्तु मद्वाचः स्वधिया योजयन्तु च ॥ ९ ॥ ९. सज्जन लोग राज-वृतान्त के अनुरोध से, न कि काव्य-गुणों की इच्छा से, मेरी वाणी सुनें और अपनी बुद्धि से योजित करें।
पर्यायवाची है । कल्हण तथा श्रीवर दोनों का भाव पाद-टिप्पणी : एक ही है। श्रीवर के पश्चात् पंचम राजतरंगिणी के
७ (१) श्रीवर : श्रीवर स्वयं स्वीकार करता रचनाकार शुक ने 'कीर्ति' शब्द का प्रयोग किया है।
। है। जोनराज का शिष्य था । श्रीवर के इस उल्लेख से उसने कल्हण तथा जोनराज दोनों के भावों को
जोनराज के जीवन पर प्रकाश पड़ता है । जोनराज श्लोक १:१.४ में प्रकट किया है।
पुरातन-परम्परा के विद्वानों के समान शिष्यों को शिक्षा पाद-टिप्पणी :
भी देता था। जोनराज अपने समय का निश्चय ही पाठभेद : बम्बई।
प्रकाण्ड विद्वान् था, अन्यथा श्रीवर जैसा राजकवि ६. (१) राजतरंगिणी : जोनराज के ग्रंथ का
स्वयं स्वीकार न करता कि वह जोनराज का नाम श्रीवर 'राजतरंगिणी' देता है। जोनराज का
शिष्य था। इतिहास इसी शीर्षक से श्रीवर के समय प्रसिद्ध था। (२) राजावली : जोनराजकृत राजतरंगिणी श्रीवर जोनराज का शिष्य था। उसकी बात साधि- का नाम श्रीवर ने यहाँ राजावली दिया है । शुक ने कार मानी जायगी।
जोनराज तथा श्रीवर दोनों के ग्रन्थों का नाम (२) पैंतीसवें वर्ष : सप्तर्षि ४५३५ = सन् 'राजावली' दिया है । वह स्पष्ट लिखता है--'श्री १४५७ ई० = विक्रमी १५१६ शक १३८१ । श्रीवर जोनराज एवं विद्वान श्रीवर ने वासठ वर्ष यावत् जोनराज की मृत्यु का निश्चित वर्ष देता है। मनोरम दो 'राजावली ग्रन्थ' ग्रथित किये (शुक :