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जैनराजतरगिणी
श्रीवर डल के तत्कालीन रूप का वर्णन करता है। श्लोक (१:५:३२) मे पुराना नाम 'सुरेश्वरी सर' लिखता है। जिससे इसका परिचय मिल जाता है। निश्चय हो जाता है। सुरेश्वरी सरका नाम ही डल सरोवर है । -'राजधानी तक वहाँ सुरेश्वरी का सरोवर है। उसमे निर्मलाकाश से चन्द्रमा सदृश नौकारूढ़ होकर, नित्य विचरण करता था। जिसमे अरत्रि (डाड़ा-चम्पा) रूप पत्र वाले, उड़ते हुए, पट से सुन्दर, शाकुनिको से अन्वित, राजा के पोत पक्षि शावक सदृश, शोभित हो रहे थे। जहाँ पर त्रिपुरेश्वर से आयी, तिलप्रस्था नदी, मानों लका को देखने के लिये, उत्सुक होकर सुटंक की ओर जाती है । छ कोश तक विस्तृत, श्री पर्वत भी, तीर्थ स्नान के फल की प्राप्ति की इच्छा से, अपने संसर्ग के व्याज से, मानो रात दिन स्नान करता है । जहाँ जल में प्रतिबिम्बित द्रुम शैवाल की तरह, पर्वत कच्छप की तरह, एव नगरियाँ नाग लोक की तरह, लगती थी। लोग देखते थे कि चलते तण एवं भूमि के शालि पुज मानो कमलों की सुगन्धि प्राप्त करने के लिये आनत हो रहे है। युगल लंका (रूप लंव-सोन लंक) देखने के कारण अपने दो उदय भ्रम से, सूर्य मानों प्रतिवर्ष दो अयन करते हुए जाते है । जिसके तट पर, तीर्थ पंक्ति शोभित, मुक्ति एवं विमुक्ति प्रद सुरेश्वरी क्षेत्र वाराणसी से भी अधिक शोभित होता है। बिहारों एवं अग्रहारों से सुकृत, कर्मठ मठों से श्रम निवारक, आश्रमों तथा राजनिवासों से स्वर्ग बना दिया था।' (१:५:३३-४१) सुल्तान ने सिद्धपुरी नामक प्रसिद्ध राजभवन का वहाँ निर्माण कराया था। (१:५:४३)
श्रावर ने डल मे तैरते खेतों का भी उल्लेख किया है। इससे प्रकट होता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्व भी डल में तैरते खेत थे। मैंने डल में इन खेतों को देखा है। श्रीवर का वर्णन आज भी सत्य है । तैरता खेत, घास, फूस, लकड़ी आदि एकत्रित कर बनाया जाता है । घास फूस पर मट्टी रख दी जाती है। उसी मिट्टी पर पौधे लगते है। खेतो को जल मे खीचकर कही भी ले जाया जा सकता है। गत शताब्दी मे तैरते खेतो की चोरी भी होती थी। श्रीवर लिखता है-'सब प्रकार के तणों द्वारा प्रवाह का निर्धारण करने से उत्पन्न, संचरणशील भूमि को राजा ने अपनी बुद्धि से उर्वरा एवं फलवती बनाया था। एक स्थान पर योगियों के पात्र पूजा हेतु जैन वाटिका नामक अन्नसत्र भोगों के कारण विस्मयावह था।' (१:५:४५,४६)
__ डल लेक समीपस्थ भूमि पर उस काल मे शाली की खेती होती थी। आज भी होती है। (१:५:५०) डल के तट गोपाद्रि गिरि के पश्चिमी छोर दुर्गा-गलिका से षडहदवन (हरवान) तक डल के दक्षिणी तथा पूर्वीय तट पर पर्वतमाला चलो गयी है। डल तथा पर्वत के मध्य संकीर्ण उपजाऊ समथल भूमि है। वहाँ पर मृग घूमते थे। उनके मृगया की ध्वनि सुनायी पड़ती थी। (१:५।५१) डल के समीप ही वितस्ता मे मारी सगम है । वही मृतको का दाह संस्कार उस समय होता था। (१:५:५६) संगम पर हिन्दू नारियाँ सती होती थी। (१:५:६१) सुल्तान ने संगम पर एक विस्तृत विहार का निर्माण पुरवासियो की सुविधा के लिये कराया था। (१:५:६२) श्रीनगर मे डल का तट सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन का केन्द्र था। यहाँ पर सुल्तान ने छात्रशालायें बनवायी, जिनसे तर्क एव व्याकरण का शब्द सुना जाता था। (१:५:६५)
तीर्थयात्रा : सुल्तान जैनुल आबदीन पुराण सुनता था। एक समय उसने आदि पुराण में नौबन्धन तीर्थ यात्रा का वर्णन सुना । तीर्थ यात्रा के लिए उत्सुक हो गया। सुल्तान लौकिक : ४५३९ = सन् १४६३ ई. पितृपक्ष के अन्तिम दिन यात्रा देखने की इच्छावश विजयेश्वर गया। (१:५:८८-८९) वहाँ रंग मण्डप देखकर, सेना सहित बान्दरपाल आदि राजा प्रसन्न हो गये। (१:५:९१) अमावस्या के दिन वहाँ झुण्ड की झुण्ड महिलायें आयी। (१:५:९३)