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जैन राजतरंगिणी
था। सैयिदों का प्राबल्य जब राजदरबार में मुहम्मद शाह की माता एवं हसन शाह की संयद वशीय रानी के कारण हो गया तो काश्मीर की पुरानी परम्परा को विदेशी होने के कारण सैयिद बालक नही करने लगे, जिससे जनता एवं संविदों के बीच खाई पड़ती चली गयी जो सैविदों के नाश का कारण हुआ।
क्रूरता:
काश्मीरी स्वभावत: क्रूर नही होते । हिसा को प्रवृत्ति उनमें नही होती । उनको प्रकृति की यह देन है । प्रकृति उन पर दयालु है । काश्मीर धन, धान्य, सुन्दर एवं जल पूर्ण है । उत्तम पर्वतों से यदि आवृत है, तो समतल मैदान भी है। प्रकृति ने उसे सब कुछ दिया है, जो मिलना चाहिए या इस वातावरण के प्राणी, विचारशील होते है । रचनात्मक प्रवृत्ति होती है। प्रकृति जिस देश एवं प्रदेश मे क्रूर होती है, वहाँ मानव को दैनिक जीवन के लिये घोर परिश्रम एवं संघर्ष करने वाला बना देती है। क्रूर प्रकृति से पग-पग पर लड़ना पड़ता है। प्रकृति से बया की आशा नहीं होती। वहाँ का प्राणी स्वभावतः उम्र, संघर्षशील एवं क्रूर होता है।
शाहमीर वंश के शासन होने पर शनैः शनैः काश्मीर मे विदेशियों का प्रवेश होने लगा, जहाँ प्राकृतिक वातावरण राजनैतिक एवं आर्थिक दृष्टियों से कठोर था खुरासान, तुर्किस्तान सीमान्त पर्वतीय प्रदेशों के लोगों का काश्मीर में प्रवेश होने लगा । मुसलिम शासन होने के कारण उन्हे सुविधा मिलने लगी । काश्मीर मे मुसलमानों की आबादी कम थी हिन्दुओं से मुसलमानों ने राज्य लिया था। अतएव सुल्तान अपनी स्थिति सुदृढ बनाने के लिये मुसलिम समर्थक जनता चाहते थे। अतएव काश्मीर में अबाध गति से विदेशी मुसलमानों का प्रवेश होने लगा । कालान्तर में वे ही कश्मीर के मुसलमानों के लिये समस्या बन गये । वे काश्मीरी रहन-सहन एव प्रकृति से परिचित नही थे। उनके आगमन के साथ हिंसा एवं क्रूरता ने काश्मीर में प्रवेश किया, जो पहले अज्ञात थी। कुछ क्रूर घटनाओं का वर्णन पूर्व शाहमीरी वंश के इतिहास में मिलता है, परन्तु वे अपवाद मात्र है । तत्कालीन काल तथा उसके पश्चात् होने वाली क्रूरताओं के अनुपात मे नगण्य है ।
धार्मिक क्रूरता सिकन्दर बुतशिकन तथा अलीशाह के समय चरम सीमा पर पहुँच गयी थी परन्तु काश्मीर के मुसलिम बहुल होने पर, जो क्रूरता पहले हिन्दुओं पर होती थी, वही क्रूरता आपस में एक दूसरे पर होने लगे । राज लिप्सा, पद प्राप्ति, आर्थिक शोषण, उत्तराधिकार के लिये संघर्ष एवं सार्वजनिक क्रूरता का अध्याय खुल गया ।
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जैनुल आबदीन काल में क्रूरता का दर्शन नही मिलता। परन्तु उसके अत्यन्त दुर्बल हो जाने पुत्रों के राज्य लिप्सा के कारण, क्रूरता ने भी पदार्पण किया। आदम खाँ का उसके अनुज हाजी खाँ से शूरपुर
में संघर्ष हुआ तो शूरपुर में बारात लेकर आये बारातियों को निरपराध मार डाला। ( १:१:१६४)
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हाजी खाँ (हैदर शाह) जब पिता के साथ युद्ध करने आया, तो पिता ने ब्राह्मण दूत पुत्र के पास भेजा । दूत की बात सुनते ही, हाजी स के सैनिकों ने उसका कान काट लिया। दूतों पर क्रूरता का यह प्रथम उदाहरण मिलता है। (१:१:१२७) हाजी लो स्वयं इस क्रूर कर्म को देखकर, लज्जित हो गया था। (१:१:१२८) संघर्ष से परीशान होकर, दयालु जैनुल आबदीन में भय प्रदर्शन का भूत प्रवेश कर गया था'राजा ने नगर में जाकर, संग्राम में मृत वीरों के खिन्न मस्तक पंक्तियों से मुखागार ( मीनार ) का निर्माण कराया । ' (१:१:१७२)
जैनुल आबदीन के पश्चात् क्रूरता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी थी । हैदर शाह का विश्वासपात्र भूत्य पूर्ण नापित था, वह लोगों का अंग विच्छेद करा देता था । यह उसके लिये साधारण बात हो गयी थी ।