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जैनराजतरंगिणी
वना रहा। (१.२:५) काश्मीर के सुल्तान हिन्दू प्रथानुसार, युवराज नियुक्त करते थे। जमशेद ने अपने कनिष्ठ भ्राता अलाउद्दीन, सुल्तान कुतुबुद्दीन ने हस्सन, मुहम्मद शाह ने शाह सिकन्दर को युवराज बनाया था। युवराज, ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ भ्राता प्रायः बनाये जाते थे। युवराज नियुक्त करने का एक मात्र अधिकार सुल्तान को था। जैनुल आबदीन ने प्रथम युवराज अपने कनिष्ठ भ्राता महमूद, तत्पश्चात् आदम खां, (१:२.५) और अन्त मे हाजी खा (१:३:११७) को नियुक्त किया था। हैदर शाह के समय में ही विद्रोहियों ने बहराम खा को सिंहासन तथा भतीजा हसन शाह पुत्र हैदर शाह को युवराज बनाने का प्रस्तान रखा था । किन्तु बहराम खां ने प्रस्ताव ठुकरा दिया । (२:१८९)
मन्त्री : जैनुल आबदीन के समय मंत्रिसभा थी।' (१:७:५२) आधुनिक मन्त्रिमण्डल के समान थी। सुल्तान मन्त्रिसभा मे बैठता था। विचार विनिमय होता था। परन्तु मन्त्री की सलाह मानने के लिए सुल्तान बाध्य नही था। राजा मन्त्रिसभा मे अपने कुटुम्ब के विषय तथा कुल सम्बन्धी बातो पर भी विचार और मत जाहिर करता था । (१:७:५८) जैनुल आबदीन मन्त्रि-सभा का आदर करता था । मन्त्रीगण सुल्तान के राज्य त्याग तथा उत्तराधिकारी बनाने के लिए भी सलाह देते थे। (१:७:१००) जैनुल आबदीन को जव सलाह दी गयी कि वह किसी एक पुत्र को अधिकार दे, तो वह सलाह मानने से इन्कार करते हुए, उत्तर दिया-'ज्येष्ठ (पुत्र) श्रेष्ठ है, किन्तु उसमें कार्पण्य है। अतएव उसके कारण इस प्रकार के सेवक नही रहेगे कि राज्य दृढ़ हो सके । मध्यम अतीव दाता है। इसके पास प्रद्युम्नाचल सदश धन होते, इसके व्यय मे कर्ष मात्र अवशिष्ट नहीं रहेगा। दुष्टबुद्धि कनिष्ठ पापनिष्ठ है, शीघ्र ही सभा नष्ट हो जायगी।' (१:७:१०३-१०५) इससे प्रकट होता है कि मत्रि-सभा का सुल्तान कितना महत्त्व देता है।
जैनुल आबदीन के पुत्र, पोत्र तथा प्रपौत्र के राजत्व काल मे स्थिति बदल गई। मन्त्री शक्तिशाली होते गये। मन्त्री पद प्राप्त करने के लिए, परस्पर संघर्ष होने लगे। सुल्तान निरपेक्ष हो गये थे । मन्त्री इच्छानुसार कार्य करते थे। सुल्तान नही, मन्त्री निरंकुश थे। उनके वैमनस्य एवं संघर्ष के कारण काश्मीर मण्डल की दुर्दशा हो गई। उनपर दुःख प्रकट करता श्रीवर लिखता है-'हिम मार्ग, इस मण्डल में यद्यपि भूपालों के दुर्व्यसन से उत्पन्न दोष नाश करने में समर्थ होते है किन्तु परस्पर मन्त्रियों के वैर से समुत्थित दोष क्षण मात्र में समस्त राज्य को नष्ट कर देते है। (३:२९५) समुदाय से शोभित सप्तधातु का अंग से युक्त शक्तिसमृद्धि सुभग (राज्य या शरीर) यद्यपि सर्व वीर्य कार्य में सक्षम रहता है किन्तु जहाँपर वातादि दोष सदृश परस्पर द्वेषी महामन्त्री होते है, वहाँ राज देह के समान, शीघ्र गल जाते हैं (३:२९६) असाध्य रोग, महाविष, ज्वालायुक्त सर्प एवं अग्नि इतना भयकारी नही होता, जितना कि इस देश में मन्त्रियों का द्वेष भयकारी हुआ है।' (३:३०२)
मन्त्रियों ने स्वार्थों के कारण देश की राजनैतिक परिस्थिति बिगाड़ दी थी। उनकी निष्ठा किसी के प्रति नहीं थी। ढलते हुए लोकतन्त्र के समान दल-बदल साधारण बात थी। श्रीवर इस दशा पर दुःख प्रकट करता है-'अधिक क्या कहा जाय, दिन में जो लोग स्पष्ट रूप से सैयिदो के पास रहते थे, वे निर्लज्ज काश्मीरी सेना मे दिखाई पड़े । नियन्त्रण रहित लोग यहाँ से आते, वहाँ से जाते, इस प्रकार शिथिल आज्ञा वाले, उस बालक राजा के समय विप्लव उठ खड़ा हुआ। (४:२२८-२२९)
सचिवों के सन्दर्भ में श्रीवर लिखता है-'सुशस्त्र, संग्रही एवं शत्र से रक्षार्थी व्यवस्था करने वाले सचिव, एक तरफ हो जाते है, तब राजश्री नौका के समान डूब जाती है।' (४.६०३) श्रीवर चेतावनी