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भूमिका
८३ दानी, ज्ञानियों का आदर करना चाहिए। उसने जनल आबदीन की इन गुणों के कारण प्रशंसा की है'कल्प वृक्ष उस राजा के समीप भुंगो के समान, दूर-दूर से सुन्दर शिल्प रचना करने वाले, कौन शिल्पी नही आये ?' (१:३:२७)
जैनुल आबदीन शाह खर्च नहीं था। अपने पुत्रों से जब वह दुःखी था तो मन्त्रियो ने राजा से पूछा'हे देव ! यदि यही निर्णय है, तो क्यों इस महान् कोश की रक्षा कर रहे है ?' जैनुल आबदीन का व्यावहारिक उत्तर ललितादित्य के वसीयतनामा का स्मरण दिला देता है-'मेरा वह हेतु सुनिए, जिससे यह पूर्ण कोश धारण किये हूँ। मेरे मरने पर, मेरा राज्य यदि कोई मेरा पुत्र प्राप्त करेगा, तो मेरे संचय से तृप्त होकर, प्रजा का धन त्याग देगा। मुझे यह प्रजा पुत्र से अधिक रक्षणीय प्रतीत होती है। अतएव उस संचय से, उसकी भावी पीड़ा का हरण करूंगा। राजा पूर्ण होने पर विलास करता है। रिक्त होने पर, प्रजा पीड़न करता है। तृप्त सिह गुहा में रमता है। क्षुधार्थ वन के जन्तु वर्ग को खाता है। मेरे संग्रह के उपकार से, भावी पीडा रहित जन, उत्तरकाल के ज्ञाता, मेरी गर्हणा (निन्दा) नही करेगे। पूर्ण राजगृह से अन्य उपकारी पूर्ण होये, यदि धन समुद्र से जल न ले जाते, तो भूमि पर क्या बरसाते ? सर्वरुचिकर राजा की जो सामग्री होती है, वह चिरकाल से उत्पन्न होने वाले केवल धन के द्वारा होती है। वृक्ष से फल, पत्र, पुष्प, जो कुछ निकलता है, वह सब पृथ्वी के अन्दर रहने वाला रस गुण ही है।' (१:७:११९-१२६)
जैनुल आबदीन प्रजा की मनोवृत्ति एवं आन्तरिक स्थिति जानने के लिए गुप्तचर रखता थाश्रीवर लिखता है-'अपने एवं दूसरे के वृत्तान्त का, नित्य अन्वेषणकर्ता, उस राजा को गुप्तचरो द्वारा प्रजाओं का केवल स्वप्न वृत्तान्त ही अविदित था।' (१:१:३६)
राजा के विषय में श्रीवर लिखता है-'कोई सुकृति नृपति, आत्मा सदृश होता है। उसे प्रजा उसी प्रकार प्रिय होती, जिस प्रकार आत्मा को प्रकृति । उसी के सुख एवं वृद्धि से सुखी एवं उसी के दुःख से दुःखी होता है।' (१:३:३२) जैनुल आबदीन ने पुत्रो के प्रजापीडन के कारण उनके त्याग का निश्चय किया था-'सों के समान मेरे पुत्रों ने राज्याग को डस लिया है। उनका त्याग ही एकमात्र उचित उपाय है । अन्यथा मुझे सुख नहीं।' (१:७:१४५)
जैनुल आबदीन का पुत्र हैदर शाह भी गुप्तचर रखता था। उनके द्वारा वह जनता की मनोवृत्ति जानने का प्रयास करता था। (२:२४) पुत्रवत् प्रजा पालन राजा का कर्तव्य है।
हैदर शाह के राज्य की अधोवस्था देखकर, श्रीवर लिखता है-'इस देश में पहले राजाओ द्वारा पुत्रवत् रक्षित, प्रजाओ को जिसने अधिकार प्राप्त कर, कुकर्मो द्वारा अति दुःखित कर दिया।' (२:४५) राजा का कर्तव्य प्रजा का पुत्रवत् पालन करना है। हिन्दू और मुसलिम दोनों नीतियाँ इसे मानती हैं।
राजशास्त्र: श्रीवर को राजशास्त्र का ज्ञान था। उसने अर्थशास्त्र एवं स्मृतियों का अध्ययन किया था। उसने जिन प्राविधिक एवं पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है, उनसे उसके ज्ञान एवं गम्भीरत्व का पता चलता है। राज्य के सप्तांग सिद्धान्त की तुलना वह शरीर के सप्त धातु से कर, अपने पाण्डित्य का परिचय दिया है। उसका राज्यसिद्धान्त यहाँ पर शरीर राज्य सिद्धान्त से मिलता है-'क्यों कि सप्त धातु सम्बद्ध, शरीर सदृश, सप्तांग अजित राज को, त्रिदोषों के समान, मेरे इन तीनों पुत्रों ने सन्दूषित कर दिया है।' (१:७:११०) 'इसी समय दोष के समान अत्युन तीनों पुत्रों ने धातु सदृश, सप्त प्रकृति युक्त, देश को दूषित कर दिया।' (१:७:१८५)