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भूमिका देता है-'काश्मीर के प्रभावशाली लोगों में जब अपना मतभेद हो जाता है, तो राज्य नष्ट हो जाता है
और बहिर्देशीय कौन से खस खुश नहीं होते ? लूट एवं दाह के कारण लोग दुःखी होते है और धन देखते है । धीर एवं वीर युक्त होकर भी, सेना नष्ट हो जाती है और शत्रु सम्पत्ति खोजता है । (४.४५२)
सभा:
मुसलिम काल में देखा गया है कि पूर्व राजाओ की राजधानी सामर्थ्य होने पर, सुल्तान बदल देते थे। दिल्ली इसी प्रकार कितने हो बार बसाई गई थी। मन्त्री बदल दिये जाते थे। नवीन सुल्तान अपनी इच्छानुसार मन्त्रियों का चयन करता था ।
सिंहासनासीन राजा की सभा पुत्र या उत्तराधिकारी अथवा राज्य हड़पने वाले का विरोध करती है, राजा का साथ देती है अतएव पुत्र, उत्तराधिकारी अथवा राजहर्ता, जब शक्ति में आता है, तो पुरानी सभा, मंत्री एवं पदाधिकारी बदल देता है। उन्हें अपराधी मानता है । क्योकि उन्होंने उसका विरोध किया था? जैनुल आवदीन ने विरोधी होने के कारण सभा को शाप दिया था। वह सभा भव्य थी, किन्तु एक ही वर्ष मे समाप्त हो गई। (१:७:२७४)
हैदर शाह ने शासन प्राप्त करने पर, पिता जैनुल आबदीन की सभा समाप्त कर दी-'कार्यों में विशारद एवं योग्य पिता की जो सभा थी, राजा ने पूर्व अपकार का स्मरण कर, सब समाप्त कर दी।' (२:१०३)
__हसन शाह के समय मन्त्री-सभा का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। राजा मन्त्रि सभा में विचार विमर्श करता था (३:५०) हसन शाह के समय मे सभा पनप नही सकी। श्रीवर लिखता है-'मुसलमान राजाओं को जो सभा थी, वह सब थोड़े ही समय मे स्वप्नोपम हो गयी। (३:१४१) सुल्तान राजसभा किवां मन्त्रिपरिषद् की उपेक्षा करने लगे। देश में किस प्रकार के आतंक की आशंका न होने पर, सुल्तान व्यसनी हो गये । रसिक हो गये। सभा भी राज-काज के स्थान पर रसिक हो गयी। (३:१६९) सभा अनेक विषयों पर विचार प्रकट करती थी। मन्त्रिसभा मे कला विद्, सगीतज्ञ आदि गुणी जन रहते थे—'राजा हस्सनेन्द्र संगीत में निपुण था। इस प्रकार एक-एक गुण से पूर्ण प्रसिद्ध नप मण्डली को लोगों ने इस मण्डल में देखा' । (३:२६७) किन्तु जब राजसभा मे राग-द्वेष उत्पन्न होता है, तो वह देश का सर्वनाश कर देती है'आश्चर्य है सर्वनाशक, यह द्वेष-पिशाच राजसभा मे उत्पन्न हुआ और कोई मन्त्री उसे जीत नहीं सका।' (३:३०१)
मुहम्मद शाह शिशु राजा था। श्रीवर ने उसका राज्य काल केवल दो वर्ष देखा था। उसके समय में सभा नाम मात्र थी। उसमें कोई स्वतन्त्रता पूर्वक विचार प्रकट नही कर सकता था-'यदि धर्म बुद्धि से कोई दीन रक्षा हेतु प्रवृत्त हुआ, तो राजसभा में ही, वह उनके (मन्त्रियों) के दुरुत्तरों से अभद्रता का पात्र बनता था।' (४:३७६) इससे प्रकट होता है कि राजसभा मे जनता विज्ञप्ति काल में विज्ञप्ति करती थी। विचार प्रकट करती थी। मन्त्री उसपर अपना मत या उत्तर देते थे। इस समय सभा दुर्बल हो गयी थी। उसका ढाँचा मात्र शेष रह गया था। इस सभा की दयनीय स्थिति का वर्णन करते हुए श्रीवर लिखता है-'जो प्रमुख भागी लोग राजसभा में देखे गये थे, वे भी, बिना शस्त्र के, लोगों के समान अपूर्व सन्त्रास पूर्वक आये । (४:४७८)