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जैनराजतरंगिणी
सुल्तान हैदरशाह की अन्त्येष्टि के प्रसंग में श्रीवर लिखता है-'नगर को निष्कंटक जानकर, निःशंक वह राजपुत्र शिविकारूढ़ पिता को शवाजिर में ले गया। एक वस्त्र से आच्छादित, उस शव को मंजूषिका से निकालकर, वहाँ (उसके) पिता के चरण के समीप, भगर्त (कब्र) में डाल दिया। सब लोग उसे मिट्टी मात्र जानकर, उसका मुखावलोकन किये और उस पर मुठीभर मिट्टी डाले। गत (कब्र) को भरकर, एक मध्योन्नत शिला स्थापित कर दिये। लोगों को यह सचित करने के लिए कि युद्ध में वह कठोर था (२:२०८ २१२) सुल्तान जैनुल आबदीन और हैदरशाह के समान हसनशाह के मरने पर भी कब्र पर पत्थर लगाया गया था--'इस प्रकार लोगों ने शवाजिर में प्रस्तर को रचना मात्र से अवशेष स्थित नप समुदाय के प्रति शोक प्रकट किया। (३:५६३)
सुस्तान हसनशाह की मृत्यु लौकिक ४५६० = सन् १४८४ ई० में हुई थी। उसको मृत्यु पर समस्त जनता ने आक्रन्दन किया था। मत्यु के दिन उसकी शव यात्रा आरम्भ हुई–'प्रातःकाल छत्र-चामर युक्त, यान पर आरोपित कर, सेवक सहित, सब सैयिद लोग पित शवाजिर ले गये। जैनुल आबदीन की मृत्यु पर जनता उस प्रकार दुःखी नहीं हुई, जिस प्रकार इसकी मृत्यु पर, शरण रहित होने पर, दुखी हुई।' (३:५५५, ५५६)
केवल एक वस्त्र के साथ सुल्तान जैनुल आबदीन तथा हैदरशाह को दफन किया गया था। 'नरेश्वर (जैनुल आबदीन) को कीरथ से उठाकर तथा एक वस्त्र से परिवेष्ठित कर पिता के पास भूगर्भ (कब्र) में रख दिया।' (१:७:२८१) हैदरशाह के प्रसंग में भी एक वस्त्र का उल्लेख है--'एक वस्त्र से आच्छादित उस शव को मंजषिका से निकाल कर, वहाँ (उसके) पिता के चरण के समीप भूगर्त (कब्र) में डाल दिया ।' (२:२०९)। परन्तु हसनशाह के प्रसंग में प्रचुर वस्त्र का उल्लेख श्रीवर करता है-'प्रचुर वस्त्र पूर्ण उस गर्त के पत्थर पर मन्त्रियों ने मस्तक पर बेठन, सुन्दर उद्बन्ध एवं उज्वल टोपी लगायी।' (३:५५७) टोपी लगाने का यह लौकिक रिवाज इस समय से आरम्भ होता है। फतहशाह की मृत्यु पर अली हमदानी की टोपो उसकी इच्छानुसार, उसके सर पर लगाकर दफन किया गया था।
मुसलमानों में मरसिया अर्थात शोक गीत गाने की प्रथा है। यह प्रथा अरबी एवं फारसी पद्धति पर आधारित है । उर्दू में दिवंगत की याद में मरसिया लिखा जाता है । प्रारम्भ में मरसिया हजरत इमाम हसन एवं हुसेन की स्मृति में लिखे जाने के कारण प्रसिद्धि पाया था। कालान्तर में मरसिया पढ़कर शोक प्रदर्शन सुल्तानों तथा अन्य व्यक्तियों के लिए भी किया जाने लगा। मुहर्रम के समय मरसिया पढ़ते और गाते है। दिवंगत के गुणों का बखान करते हैं।
श्रीवर पर तत्कालीन अरबी, फारसी तथा देशी भाषा के मरसिया की छाप, उसके शोक शैली पर लिखे पदों में मिलते है। जैनुल आबदीन की मत्य के पश्चात् हाजी खाँ अर्थात् हैदर शाह से शोकोद्गार श्रीवर ने प्रकट कराया है। वह तत्कालीन मरसिया साहित्य का प्रभाव प्रतीत होता है । (१:७:२३६-२४९) हैदर शाह की मृत्यु पर मुहर्रम में जिस प्रकार छाती पीटकर मरसिया पढ़ते, शोक प्रकट करते थे, उसी प्रकार श्रीवर ने शोक प्रकट करने का दृश्य उपस्थित किया है। (२:२१२) इसी प्रकार सुल्तान हसनशाह की मृत्यु पर श्रीवर ने कुछ पद लिखे हैं। (३:५५४-५६३)
उत्तराधिकार : शाहमीर वंश में उत्तराधिकार अनियमित क्रम से चला। शाहमीर का पुत्र जमशेद सुल्तान हुआ । जमशेद के पश्चात् उसका भाई अलाउद्दीन सुल्तान हुआ।। अलाउद्दीन के पश्चात् उसका प्रथम पुत्र शिहाबुद्दीन