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जैन राजतरंगिणी
होते, लोगों ने देखा ।' (१:११७) कुछ ही समय पश्चात् बहराम खाँ बन्दी बनाया गया । उसकी आँखें फोड़ दी गयीं । बन्दीगृह में तीन वर्ष लम्बा जीवन व्यतीत कर वहीं मर गया ।
संस्कार:
धर्म परिवर्तन के पश्चात् भी काश्मीरी मुसलिम जनता का पूर्व संस्कार बना रहा। वे भूत-प्रेत में विश्वास करते थे । सुल्तान हैदर शाह काच मण्डप में गिर गया । आघात के कारण कालान्तर में मृत्यु हो गयी । किन्तु उसकी मृत्यु का कारण जनता ने भूत उपद्रव मान लिया । श्रीवर लिखता है - ' इस प्रकार कुछ लोग कहते हैं--'उन्नत स्तम्भ वाले मण्डप में वेताल रहता था । उग्र क्रोध करके, उसी ने अपनी कृपाण से राजा को खण्डित कर दिया । ' (२:२०२ )
श्रीवर देवताओं के कोप का वर्णन करता है । पूर्वकाल में कुछ देवता, जिन्हें सैय्यदों ने जलाया और लूटा था, उनके कोप के कारण सैय्यदों की विजय नहीं हुई – 'किन्तु पहले देश के कुछ देवता लूटे एवं जलाये गये थे, अतः कुपित वे देवता, उन सैयिदों को विजय के लिये कैसे बुद्धि देते ।' ( ४:१९३)
पुल टूट जाने के कारण उभय पक्षों की सेना वितस्ता में डूब गयी । उसका कारण वितस्ता नदी का क्रोध दिया गया है- 'निश्चय ही वितस्ता रूप धारिणी, शारदा देवी ने उनके अधर्म के क्रोध से, दोनों सेनाओं का ग्रास कर लिया । ( ४:१९६)
उत्तरायण :
एवं मृत्यु के लिये अच्छा मानते थे । जैनुल ४४९६ ( लौ० ) वर्ष के, उत्तरायण काल के अन्त,
हिन्दू मुसलमान दोनों ही उत्तरायण के समय शुभ कार्य आवदीन के मृत्यु प्रसंग में श्रीवर लिखता है - 'सुल्तान ने ज्येष्ठ मास में राज्य प्राप्त किया और उसी माम के साथ अन्तर्हित हुआ ।' (१:७ : २२४ )
सती :
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काश्मीर में सती प्रथा प्रचलित थी । कुलीन स्त्रियाँ सती होने में गर्व का अनुभव करती थीं। सिकन्दर बुत्त शिकन ने सती प्रथा बन्द कर दी थी । जैनुल आबदीन ने सती प्रथा बन्द न कर, सती होने वाली की इच्छा पर छोड़ दिया था । जैनुल आबदीन के पश्चात् श्रीवर तथा शुक दोनों की राजतरंगिणियों में सती होने का उल्लेख नहीं मिलता। उससे प्रकट होता है । । सती प्रथा काश्मीर में लुप्त हो गयी थी । श्रीवर लिखता है--' बाह्य देश की नीति के अनुसार, जहाँ पर नारियाँ चितारोहण कर, प्रिय का अनुगमन करती थीं और राजा उन्हें वारित नहीं करता था । ' (१:५:६१)
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शवदाह :
श्रीनगर का प्राचीन श्मशान वितस्ता तथा मारी संगम पर था । कल्हण के समय जिस मारी वितस्ता संगम पर श्मशान था, वहीं पर श्रीवर के समय भी था । संगम पर दाह करना पुण्य एवं मुक्तिप्रद माना जाता
था - 'नगर में मृतकों का दाह करने से स्वर्ग प्रद, वह मारी संगम, वितस्ता के संग से प्रख्यात हो गया । (१:५:५६) दाह समय पर, क्षेत्र पाल, पंचवारिक भृत्य, पुरवासियों से शवदाह का शुल्क ग्रहण करते थे । (१:५:५७ ) एक समय अपने पिता की मृत्यु पर मैंने सुल्तान से शुल्क की बात कही, तो उन किरातों को दण्ड देकर शव शुल्क निवारित कर दिया ( १ : ५:५८ ) उसी समय से नगर में उस स्थान पर, दर्शन द्वेषी म्लेच्छों के हृदय के साथ विमानी (सामान्य) जन जलाये जाते थे । ' (१:५:५९) सिकन्दर बुतशिकन के समय