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भूमिका किसी को प्रसन्न करने के लिये, उसने लेखनी नही उठायी थी। परन्तु जोनराज, श्रीवर तथा शुक तीनों ही मुसलिम कालीन कवि हैं। तीनों राजकवि थे। तीनों सुल्तानों के आश्रित थे। तीनों ने पतनोन्मुख काश्मीर का दर्शन किया था। कल्हण तथा अन्य तीनों राजतरंगिणीकारों के दृष्टिकोणों मे कालान्तर के कारण भेद होना स्वाभाविक है।
__ जोनराज सुल्तान को कुछ कम प्रसन्न करने की इच्छा रखता था। उसके समय काश्मीर की जनता हिन्दू से मुसलमान हुई थी। मन्दिर टूटे थे। उसने मन्दिरों की गरिमा देखी थी। उनका खंडहर होना देखा था । जोनराज की भाषा में वेदना है । उसे वह अपने काव्य प्रवाह मे भी भूल नही सका है।
श्रीवर तथा शुक काश्मीर का प्राचीन वैभव नहीं देखे बे। उन्होंने मन्दिरों के ध्वंसावशेषों को देखा था। हिन्दुओं का उत्पीड़न देखा था। दमन देखा था। परिस्थितियों ने उन्हें भाग्यवादी बना दिया था। इसकी झलक श्रीवर के मंगलाचरण एवं रचना मे मिलती है।
श्रीवर ने मंगलाचरण में विचित्र कामना की है। वह भगवान् से कामना करता है। अर्धनारीश्वर अद्वैता भावना दे। श्रीवर के मंगलाचरण से स्पष्ट प्रकट होता है। वह अद्वैतवादी था। अद्वैत दर्शन से प्रभावित था । श्रीवर का यह अद्वैत वाद, यह एकेश्वर वाद, तत्कालीन मुसलिम एकेश्वर वाद के कठोर सिद्धान्तों से प्रभावित है। श्रीवर भी अन्य काश्मीरियों के समान था। उसने प्रथम तथा तृतीय तरंगों के मंगलाचरण में शिव को नमस्कार किया है।
कवि बन्दना: प्रत्येक राजतरंगिणीकार ने कवि बन्दना की है - 'पदन्यास के कारण मनोहारी, क्षीर-नीर विवेकी, वे राजकवि वन्दनीय है, जो सरस शब्दों के कारण प्रख्यात हुए है। अनित्यता रूप अन्धकार से युक्त, स्वामी शून्य, इस महीतल पर, काव्य दीपक के अतिरिक्त, कोन अतीत वस्तु को प्रकाशित कर सकता है ? ब्रह्मा जिन राजाओं के नश्वर शरीर की रचना करता है, इन्ही के कीर्तिमय शरीर को जगत् मे कल्प पर्यन्त जोनराज स्थायी करता है।' (१:१:६-५)
श्रीवर ने कल्हण के निम्नलिखित भाव को दूसरे शब्दों में रख दिया है-'सुधा धारा को भी मातकरने वाले कवियों का गुण वन्दनीय है। जिनके कारण उनकी तथा दूसरों की यशःकाया स्थिर रहती है।' (राः१:३:) कल्हण और लिखता है-'जिन राजाओं की छत्रछाया में पृथ्वी निर्भय रही, वे राजा भी जिस कवि कर्म के बिना स्मृति पथ पर नहीं आते, उस कवि कर्म को नमन है ।' (राः१:४६)
जोनराज कवि की वन्दना नहीं करता। परन्तु राजाओं के जीवित रहने का कारण कवि को देता है-'तदुपरान्त देशादि दोष अथवा उन (राजाओं) के अभाग्यों के कारण किसी कवि ने वाक्य सुधा से अन्य नृपों को जीवित नहीं किया' (श्लोक ६) । वह और लिखता है-'मैने राज उदंत कथाओं का सूत्रपात मात्र किया है, (अब) इस विषय में चतुर कवि शिल्पी रचना करें।' (श्लोक १७)
शुक ने भी कवि बन्दना की है-'सुन्दर पदों से शोभन, अविरल अनुप्रास युक्त, शुभ्र नाना प्रकार के अर्थो से अनुगत, मान्य सुकवियों के ललित भावों से अन्वित, श्लोकों के रचनाकार, तर्क वितर्क से कुशल मति, कवि का प्रमाणन्वित वाक्यवन्ध है, जिसकी क्रान्ति से नृपों की कीति, वस्तु रचना, सब ओर से देदीप्यमान हो उठती है।' (१:४) तरंग तृतीय के मंगलाचरण मे श्रीवर पुनः कवि की बन्दना करता है-'भूतकालीन जिस राज वृत्तान्त को अपनी वाणी की योग्यता से वर्तमान करता है, वह योगीश्वर कवि बन्दनीय है। ( ३:२)