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भूमिका ४३ आलोचना - प्रत्यालोचना एवं विवादों में नही उलता । इसका अभाव जोनराज तथा शुक में मिलता है । वे अपने आश्रयदाता सुल्तानों के धार्मिक विषयो पर कुछ व्यक्त न कर, उससे बचना चाहते थे ।
श्रीवर ने अपने विचारों को दृढ़ता पूर्वक प्रकट किया है। उसने सुल्तानी तथा मुसलिम धर्म के रीति रिवाजो की आलोचना भी की है। वह मृतक संस्कार के संदर्भ मे स्पष्ट बती भाषा में गाड़ने की अपेक्षा दाह संस्कार को अच्छा मानकर, उसका समर्थन किया है । उसका तर्क आज भी मान्य हैं । जगत् दाह संस्कार की ओर, ईसाई, शिन्तो, कनफ्यूसस अथवा मुसलिम धर्मानुयायियों के होने पर भी बढ़ रहा है। श्रीवर लिखता है - 'जो अपने देह मे स्थित अपने आयु की अवधि जानता है, और मित्रता के कारण अन्तक, जिसके आधीन होता है, उसी के लिए साजिर कर्म करना उचित है, म्लेच्छों का यह दुर्व्यसन मात्र है, यह मेरा मत है। (२:९०) प्रत्येक सामान्य जन सैकड़ों हाथ भूमि घेरने में रत रहता है और दूसरे का प्रवेश यत्न पूर्वक नही होने देता, क्या उसे लज्जा नहीं आती ? मुसलिम शास्त्रो मे सुना गया है कि यदि शव भूतल पर छोटी शिलायें स्थापित कर दी जाय, तो उसके परलोक जाने पर सुख मिलता है । अहो ! आश्चर्य है !! इस लोभ के माहात्म्य पर, जो कि जीवित की तरह मृत भी शवाजिर के व्याज से भूमि का आवरण ( घेराव ) करते है । अन्य (हिन्दू) दर्शन का आचरण ही श्रेष्ठ है, जहाँ हस्त मात्र भूतल पर नित्य करोड़ों दग्ध होते है, तथापि वह उसी प्रकार खाली रहता है । इस प्रकार प्रसंग वश, यहाँ जो अनुचित निन्दा की है, मुसलमान लोग उसे क्षमा करेंगे, क्योकि कवि की वाणी निरंकुश होती है ।' (२:९०-९७ )
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वैराग्य
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श्रीवर ने चारों तरंगों मे चार उद्देश्य किंवा कामना की है। प्रथम तरंग का स्थायी भाव जोनराज के शेष इतिहास अर्थात् जैनुल आबदीन के अपूर्ण चरित्र को पूरा करना था । राज्य वृत्तान्त के अनुरोध से वह अपनी बाणी पाठकों को सुनाना चाहता सुल्तान ने उस पर जो उपकार किया था, उसकी निष्कृति के लिये रचना पर, तत्पर हुआ था । द्वितीय तरंग में सुख भाव की कामना की है। तृतीय तरंग की रचना जिस सुल्तान की जीविका का भोग किया था, उससे उऋण होने के लिए, हसन शाह का चरित लिखा है । परन्तु तृतीय एवं चतुर्थ तरंग का स्थायी भाव वैराग्य है । वह लिखता है - 'अपनी आँखों से देखे, स्मरण किये गये, राजाओं के विपत्ति, वैभव आदि विकृतियों के कारण यह राजतरंगिणी किसमे वैराग्य नहीं पैदा करेगी । ' ( ३:४) श्रीवर ने बहराम लां के कारागार में उठते उद्गार मन्त्रियों एवं सेनानायकों की स्वार्थ परता, काश्मीरियों एवं सैयिदों के रक्त रंजित घटना क्रमों, क्रूरता की पराकाष्ठा, घमण्डी घनिकों का शोषण और आततायियों का पीड़क होना, वंशजों के रक्त से हाथ रगना, पद च्युत होते ही श्रीहीन हो जाना, स्वार्थ के लिये नाना प्रकार के कुकर्म विभव का लोप पराभव का कष्ट किचित् स्वार्थ पूर्ति के लिये आचरण का त्याग आदि पेटनाओं के कारण तृतीय तथा चतुर्थ तरंग में पद पद पर वैराग्य उत्पन्न होता है। जंगल आवदीन भी अपने पुत्रों के व्यवहार से जीवन से से आच्छादित है, जीर्ण एवं है ।' (१:७१:४४ )
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ऊब गया था । वह कहता है - 'देह रूप यह कुटीर, जो केश रूप तृणों छिद्रयुक्त हो गयी है, मन रूपी मूर्ति को यह रुचिकर नहीं लग रही
धीवर मे वीरशृंगारादि
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जीवन के संघर्ष, स्वार्थ
कल्हण का स्थायी भाव शान्त रस है। जोनराज का स्थायी करुण रस है। भाव सभी रसोंका दर्शन मिलता है परन्तु वैराग्य भावना सर्वदा परिलक्षित होती है लोलुपता, ऐश्वर्य एवं लक्ष्मी की पंचलता आदि के कारण श्रीबर के वर्णन से होता है।
मन में विराग उत्पन्न