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प्रस्तावना
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गा० १६९४ में ध्यानके भेद कहे हैं। इसकी टीकामें सर्वार्थसिद्धिमें (९।२७) जो 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्' की व्याख्या की है उसका खण्डन है । और चिन्ता शब्दका अर्थ चैतन्य किया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वार्थसिद्धिको मानते हुए भी उसे एकान्ततः मान्य नहीं करते थे। 'अन्ये' शब्दसे उसका उल्लेख ही यह बतलाता है कि वह उनकी आत्मीय नहीं थी।
____फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि आगमोंको छोड़कर अन्य आचार्यकृत साहित्यमें यापनीय ग्रन्थकार दिगम्बराचार्योंके साहित्यको प्रश्रय देते थे, क्योंकि जिस प्रकार इस टीकामें कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, सिद्धसेन, पूज्यपादके ग्रन्थोंके प्रमाण मिलते हैं उस प्रकार एक भी किसी श्वेताम्बराचार्य प्रणीत ग्रन्थका उद्धरण नहीं मिलता।
श्वेताम्बर-दिगम्बरके मध्यमें तीन प्रमुख मत भेदोंमेंसे स्त्री मुक्ति और केवलिमुक्ति तो सैद्धान्तिक है। आज न कोई मुक्ति प्राप्त कर सकता है और न केवली हो सकता है। किन्तु अचेलकत्व या दिगम्बरत्व तो सैद्धान्तिक होनेके साथ वर्तमानमें भी दृश्यरूपमें प्रवर्तित है। इस दृष्टिसे यापनीय दिगम्बर सम्प्रदायके निकट रहे हैं। इसके सिवाय दक्षिणमें दिगम्बर सम्प्रदायका प्राबल्य था, उधर ही यापनीय सम्प्रदाय भी था। उसके भी मन्दिर और मूर्तियाँ थीं। वे भी नग्न मूर्तियोंके हो उपासक थे। नग्नतामें भेद कैसा। फलतः वे सब दिगम्बरोंमें ही समा गये। उनके साहित्यमें नग्नत्वका ही पोषण था तथा स्त्री मुक्ति और केवलिभुक्तिकी चर्चा नहीं थी। फलतः (उक्त दो प्रकरणोंको छोड़कर) उनका साहित्य भी दिगम्बरोंमें समा गया । जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण भगवती आराधना और उसकी विजयोदया टीका है।
मूलाराधना दर्पण-भ० आराधनाकी दूसरी उपलब्धटीका मूलाराधना दर्पण है। शोलापुरसे १९३५ में प्रकाशित संस्करणमें इसका प्रकाशन हुआ था। यह टोका विज़योदया आदि टीकाओंको सामने रखकर लिखी गई है। विजयोदयाका इसपर विशेष प्रभाव है। विशेष कथन क्वचित् ही है। अतः हमने उसे इस संस्करणमें सम्मिलित न करके उसके विशेष कथनोंको विशेषार्थरूपमें ले लिया है। इसके रचयिता प्रसिद्ध ग्रन्थकार पं० आशाधर हैं। उन्होंने । सं० १२९५ में रचे गये जिन यज्ञकल्पकी प्रशस्तिमें मूलाराधना टीकाका निर्देश किया है। अपनी इस टीकामें आशाधरजीने विजयोदया टीकाकारका निर्देश श्री विजयाचार्य, टीकाकार, या संस्कृत टीकाकारके नामसे किया है । जिन गाथाओंपर विजयोदया नहीं है प्रायः उनके लिए आशाधरजीने यह निर्देश किया है कि इसे टीकाकार नहीं मानता। उनके सामने भी कुछ अन्य टीकाएँ थीं, ऐसा उनके उल्लेखोंसे प्रकट होता है। किन्तु उनमें उन्होंने प्राकृत टीकाको विशेष महत्त्व दिया है। उसके मतोंका निर्देश कई स्थानोंमें है और उसीको उन्होंने विशेष अपनाया है। कुछ टीकाएँ संस्कृत पद्यात्मक भी रही हैं। जैसे अमितगतिकी तो शोलापुर संस्करणमें प्रकाशित हो चुकी है। उसके अतिरिक्त भी एक दो पद्यात्मक टीका रही हैं जिनके पद्योंको भो प्रमाणरूपसे आशाधरजीने उद्धृत किया है। उनका विशेष परिचय इस प्रकार है
१. गाथा १६ की टीकामें अपराजित सूरिने 'अन्ये व्याचक्षते' लिखकर अन्य व्याख्याका निर्देश किया है। आशाधरजीने उक्त मतान्तरका निर्देश करनेके पश्चात् लिखा है कि जयनन्दिपाद इस गाथाको पूर्वगाथाकी संवाद गाथा मानते हैं ।
वि०
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