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प्रस्तावना
३९
अर्थ है महत्ता ख्यापन | इसका वर्णन संस्कृत गद्यशैलीमें विस्तारसे किया है। इसमें सांख्यादि दर्शनोंकी समीक्षा भी है। अर्हन्त सर्वज्ञ नहीं है पुरुष होनेसे । इस अनुमानका निरसन करते हुए कहा है-'जैमिनि आदि सकलदार्थज्ञ नहीं है पुरुष होनेसे' ऐसा भी कहा जा सकता है । इससे ऐसा प्रतीत होता है.कि कुमारिलने जो सर्वज्ञका खण्डन किया था, वह उनकी दृष्टि में है । आगे यह भी लिखा है कि 'अर्हन्तके सर्वज्ञता और वीतरागताकी सिद्धि अन्यत्र कही है इसलिये यहाँ नहीं कहते हैं। उनका यह कथन अकलंकके प्रकरणोंको लेकर भी हो सकता है । यद्यपि अकलंक आदि किसी दार्शनिक ग्रन्थकारका कोई संकेत नहीं है। किन्तु जिस प्रकार अकलंक देवने तत्त्वार्थ वार्तिकमें सूत्रके पदोंका व्याख्यान किया है। उसी प्रकारकी शैली यहाँ देखनेमें आती है । जैसे वर्ण शब्द रूपवाची है, अक्षरवाची है, बाह्मणादि वर्णवाची है आदि ।
३. गा० ११८ में ग्रन्थकारने साधुके उत्तरगुणका केवल निर्देश किया है। किन्तु उसकी टीकामें बाह्य तपों और छह आवश्यकोंका स्वरूप बहुत ही सुरुचिपूर्ण दिया है। इसमें जो दो गाथायें उद्धृत हैं वे मूलाचारके षडावश्यक प्रकरणमें पाई जाती हैं।
- ४. गाथा १४५ की टीकामें जिन भगवानके पञ्च कल्याणकोंका वर्णन संस्कृत गद्यमें बहुत ही भक्तिपूर्ण है।
५. गाथा १५७ की टीकामें आलन्दविधि, परिहार संयम आदिका जो वर्णन किया है. वह अन्यत्र देखने में नहीं आया। उसमें हमें सिद्धान्त विरुद्ध कथन कोई प्रतीत नहीं हुआ। प्रत्युतः उससे परिहार विशुद्धि संयमकी महत्ता और दुरूहताका ही बोध हुआ। श्वेताम्बर आगमके अनुसार तो जम्बूस्वामीके मुक्तिगमनके पश्चात् जिन कल्पका विच्छेद हो गया। किन्तु टीकाकारने लिखा है कि जिन कल्पी सर्व धर्म क्षेत्रोंमें सर्वदा होते हैं । इसमें भी कुछ गाथायें उद्धृत हैं जिनमें कल्पोक्त क्रम कहा है।
६. गाथा ४२३ की टीका में दस कल्पोंका वर्णन है। उसमें आचेलक्य कल्पका वर्णन करते हुए टीकाकारने आगमोंमें पाये जानेवाले वस्त्रपात्रवादकी समीक्षा करते हुए अचेलकताकी सिद्धि बड़े प्रभावक ढंगसे की है। वह सब उनके वैदुष्यका परिचायक तो है ही, यापनीयोंकी दृष्टिका भी परिचायक है। वही दृष्टि उन्हें श्वेताम्बरोंसे भिन्न करती है। इसमें भी उद्धरणोंकी बहुलता है।
७. गाथा ४४८ की टीकामें पंच परावर्तनका स्थूल वर्णन है। केवल भव-संसारका स्वरूप सर्वार्थसिद्धिसे मेल खाता है । इसमें एक श्लोक भर्तृहरिशतकसे उद्धृत है । कुछ श्लोक टीकाकारके भी हो सकते हैं उनमें चतुर्गतिका स्वरूप कहा है।
८. गाथा ४८९ में दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके अतिचारोंका संकेत है। इनमें से टीकामें जो तपके अतिचार कहे हैं वे उल्लेखनीय हैं क्योंकि अन्यत्र हमारे देखने में नहीं आये ।
९. गाथा ११८१ की टीकामें मनोगुप्ति आदिका स्वरूप शंका समाधान पूर्वक स्पष्ट किया है। मनोगुप्तिमें मन शब्द ज्ञानका उपलक्षण है। अतः रागद्वेषकी कालिमासे रहित ज्ञानमात्र मनोगुप्ति है । यदि ऐसा न माना जाय तो मति आदि ज्ञानके समय मनोगुप्ति नहीं रहेगी।
इस प्रकार टीकाकार ने अपनी टीकामें आवश्यकतानुसार समागत विषयोंको स्पष्ट करके, ग्रन्थकी गरिमामें वृद्धि की है।
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