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में शांतिपर्व का अभिमत है - 'अध्ययन, यज्ञ, तप, सत्य, इन्द्रिय- संयम एवं अहिंसा-धर्म का पालन जिस क्षेत्र में होता हो, वहीं व्यक्ति को निवास करना चाहिये ।'
अहिंसा के विभिन्न पर्यायवाची शब्दों का ग्रहण शांतिपर्व में सत्य के तेरह भेदों में किया गया है - 'समता, दम, मत्सरता का अभाव, क्षमा, लज्जा, तितिक्षा, (सहनशीलता) दूसरों के दोष न देखना, त्याग, ध्यान, आर्यता ( श्रेष्ठ आचरण), धैर्य, अहिंसा और दया- ये सत्य के स्वरूप हैं ।' सत्य में अहिंसा का समाहार, अहिंसा के स्वरूप का ही द्योतक है। आर्हती दृष्टि से देखें तो - समता, दम, क्षमता, तितिक्षा, त्याग, दयादि अहिंसा के ही पर्यायवाची हैं ।
दम (संयम) की शक्ति अदम्भ है । महामात्य विदुर इससे भलीभांति परिचित थे। उन्होंने दम का उपदेश कौरवों को दिया एवं पांडवों की विजय श्री का अनुमान भी उनकी दमशक्ति में ही आंका । दुर्योधन आदि के समक्ष विदुर ने दमनशील का चित्रण किया- 'जिस पुरुष में क्षमा, धृति, अहिंसा, समता, सत्य, सरलता, इन्द्रियनिग्रह, धैर्य, मृदुलता, लज्जा, अचंचलता, अदीनता, अक्रोध, संतोष और श्रद्धा - इतने गुण हो, वह दांत ( दमन युक्त ) कहा जाता है।.......जो पुरुष लोलुपता रहित, भोगों के चिंतन से विमुख और समुद्र के समान गंभीर होता है, वह दमनशील कहा जाता है।' यह अहिंसक जीवन शैली का प्रतीक है। इससे स्पष्ट होता है कि महाभारत काल के जन-जीवन में अहिंसा का विकास उच्च कोटि का था ।
हिंसा और परिग्रह का, अहिंसा और अपरिग्रह का संबंध है । इस तथ्य को महाभारत कालीन युद्ध में खोजा जा सकता है । जगजाहिर है कि परिग्रह की पकड़ ने हिंसा का तांडव नृत्य कर इतिहास की थाति को एक बार फिर धूमिल कर डाला। पर, यह नियति का प्राबल्य ही था कि उग्र सत्यअहिंसा प्रेमियों का उपदेश कौरवों की मूर्च्छित भावनाओं को बदल न सका । मूर्च्छित व्यक्ति की हिताहित बुद्धि कुंठित हो जाती है । परिग्रह की गहरी पकड़ जीवन लीला को कैसे लील जाती है इसका जीवंत उदाहरण विदुर ने धृतराष्ट्र से निवेदन किया था - एक बार कई भील और ब्राह्मणों के साथ मैं (विदुर) गन्धमादन पर्वत पर गया था। वहाँ एक शहद से भरा हुआ छत्ता देखा। अनेकों विषधर सर्प उसकी रक्षा कर रहे थे। वह ऐसा गुणयुक्त था कि यदि कोई पुरुष उसे पा ले तो अमर हो जाये । यह रहस्य विदुर ने रसायनविद् ब्राह्मणों से सुना था । भील लोग उसे प्राप्त करने का लोभ संवरण न कर सकें और उस सर्पोंवाली गुफा में जाकर नष्ट हो गयें। इसी प्रकार आपका पुत्र दुर्योधन अकेला ही सारी पृथ्वी को भोगना चाहता है । इसे मोहवश शहद तो दिख रहा है किंतु अपने नाश का सामान दिखाई नहीं देता। याद रखिये, जिस प्रकार अग्नि सब वस्तुओं को जला डालती है वैसे ही द्रुपद, विराट् और क्रोध में भरा हुआ अर्जुन - ये संग्राम में किसी को भी जीता नहीं छोड़ेंगे। इसलिए राजन् ( धृतराष्ट्र) आप महाराज युधिष्ठर को भी अपनी गोद में स्थान दीजिये, नहीं तो इन दोनों का युद्ध होने पर किसकी जीत होगी- यह निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता 165
अहिंसा की विराट् भावना का महत्त्व बताते हुए वेद व्यास ने कहा-धर्म और अर्थ दोनों ही पुरुषार्थों से अहिंसा उच्च कोटि की है । पिता द्वारा प्रदत्त अहिंसा उपदेश व्यासपुत्र शुकदेव के वैराग्य का कारण बना। पिता की शिक्षा थी - 'बेटा! तुम सर्वदा जितेन्द्रिय रहकर धर्म का सवेन करो; गर्मीसर्दी, भूख-प्यास को सहन करते हुए प्राणों पर विजय प्राप्त करो; सत्य, सरलता, अक्रोध, अदोषदर्शन, जितेन्द्रियता, तपस्या, अहिंसा और अक्रूरता आदि धर्मों का विधिवत् पालन करो .. ।" इस उपदेशामृत में अहिंसा के पालन का स्पष्ट उल्लेख 1
अहिंसा का ऐतिहासिक स्वरूप / 43