Book Title: Andhere Me Ujala
Author(s): Saralyashashreeji
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 379
________________ करुणा उनके आध्यात्मिक जीवन का अंग थी । प्राणिमात्र के प्रति प्रेमभाव उनका स्वभाव बन गया था। गांधी की करुणा कितनी प्राणवान् थी, इसकी पुष्टि में एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा । चम्पारन में बलि के लिए ले जा रहे बकरे की जानकारी पाकर गांधी उस जुलूस में सम्मिलित हो गये। जुलूस देवी के मंदिर के पास आया। गांधी ने पूछा- बकरी किसलिए बलि चढ़ायी जा रही है? ‘इसलिए कि देवी प्रसन्न हों।' गांधी का करुण हृदय बोल उठा 'बकरे से आदमी श्रेष्ठ है। मनुष्य की बलि देने से देवी अधिक प्रसन्न होगी। अपने को बलि करने कोई आदमी तैयार है? नहीं तो मैं तैयार हूँ ।' सब की जुबान बंद हो गई। गांधी बोले : गूंगे जानवर से क्या देवी प्रसन्न होती है ? यदि वह प्रसन्न होती हो तो अपना अधिक मूल्यवान् रक्त दो। वह क्यों नहीं देते? यह तो धोखा है, अधर्म है । आप हमें धर्म समझायें ।' उस बकरी को जीवन दान मिला। आज यह जगदम्बा आप लोगों पर जितनी प्रसन्न हुई होगी, उतनी इससे पहले कभी न हुई होगी।" सब लोग लौट गये । यह उदाहरण गांधी के करुणापूरित हृदय से उपजे सत्य को प्रस्तुत करता है । उनकी अध्यात्म चेतना में द्वेषभाव का स्थान नहीं था । प्रेम और मैत्री का विकास उनके जीवन में इस सीमा तक था कि विषैले सर्प भी उनकी दृष्टि में वध्य नहीं थे। 1917 का प्रसंग है । आश्रम में प्रार्थना के समय एक काला सर्प पीछे से गांधी की पीठ पर चढ़कर कंधे तक आ गया। लोगों द्वारा सावधान करने पर गांधी ने हंसकर कहा 'यह तो अपने आप ही चला जाएगा या इसके द्वारा ही मेरी मृत्यु लिखी होगी तो कोई चिन्ता की बात नहीं है ।.......अगर इस साँप ने मुझे काटा तो मैं सबसे यही कहूँगा कि कम से कम इसे मारो मत।' थोड़ी देर बाद वह साँप अपने आप चल गया।7 यह घटना उनकी अध्यात्मिक साधना का सबूत है । अपना अनिष्ट करने वाले के प्रति भी अहिंसात्मक विचार थे । राजनैतिक जीवन में निस्पृहता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनी रही। पदलिप्सा और सत्ता से मुक्त रहने की मनोवृत्ति निस्पृह भाव की द्योतक है। प्रेस सम्मेलन में एक पत्रकार ने बापू से पूछा, 'क्या आप स्वतंत्र भारत की सरकार के प्रधानमंत्री होगें ?' बापू ने उत्तर दिया 'नहीं, यह पद युवकों के लिए सुरक्षित होगा ।' 15 अगस्त, 1947 को सत्ता के हस्तांतरण का उत्सव राजसी ठाठबाट से मनाने का फैसला किया गया था, लेकिन गांधी गाजे-बाजे के जरा भी पक्ष में नहीं थे। जिस दिन के लिए वे जीवन-भर परिश्रम करते रहे थे, उसके आगमन पर उनके मन में कोई उमंग नहीं थी । यह उनकी निस्पृहता, सहजता का निदर्शन है । आचार्य महाप्रज्ञ एक महान् आध्यात्मिक संत थे। उनके जीवन का हर पहलू त्याग-वैराग्य से परिपूर्ण था । उसे व्याख्यायित करने की अपेक्षा नहीं है। महाप्रज्ञ के भीतर करुणा का जो अजस्त्र स्रोत था, उसने उनके आध्यात्मिक जीवन को पूर्णता प्रदान की । वैचारिक आत्म मंथन के क्षणों में आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा- 'मैं इसे निसर्ग ही मानता हूँ कि मेरे मन में क्रूरता की अपेक्षा करुणा अधिक प्रवाहित है।' कोई भी व्यक्ति अपने में क्रूरता न होने का दावा नहीं कर सकता । करुणा और क्रूरता दोनों धाराएँ हर व्यक्ति में प्रवाहित होती रहती हैं- कोई बड़ी और कोई छोटी । असमर्थ वर्ग के प्रति समर्थ वर्ग के अतिक्रमणों की चर्चा जब जब सुनता हूँ, तब-तब मन करुणा से भर जात है । इस कथन से प्रकट होता है कि अध्यात्म का सार करुणा है । महाप्रज्ञ के जीवन में इसका पर्याप्त विकास देखा गया है। अभेद तुला : एक विमर्श / 377

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