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महाप्रज्ञ का यह मानना था कि हम करुणा की सर्वोच्च अवस्था पर न जा सकें तो कम से कम इतनी संवेदनशीलता जरूरी है कि असमर्थ, असहाय व्यक्ति के प्रति हमारी सहानुभूति हो, संवदेनशीलता हो। यह अनुभव करें कि यह कष्ट भोग रहा है, हम उस कष्ट को अपने पर तो नहीं ले सकते, पर उसके उपचार में सहायक जरूर बन सकते हैं। यह संवेदनशीलता ही समाज की स्वस्थता को कायम रखती है।
कभी कुछ पाने या पदलिप्सा की चाह नहीं जगाई। अकर्तृत्व भाव से सब कुछ करते हुए भी महाप्रज्ञ अकर्ता बने रहे हैं। तथ्यतः गांधी और महाप्रज्ञ का आध्यात्मिक व्यक्तित्व अपने आपमें स्वस्थानीय परिपूर्ण था। जिसकी कीर्ति पूरे जगत् में पसरी है। अहिंसा की शक्ति अहिंसा की शक्ति को गांधी और महाप्रज्ञ समान रूप से स्वीकारते थे। उनका मानना था कि इस शक्ति से हर असंभव को संभव बनाया जा सकता है। अहिंसा एक ऐसा शाश्वत मूल्य है जिस पर अनेकों ने चल कर अपने स्वरूप को प्राप्त किया है। अहिंसक आचरण में अनेक समस्याओं को समाहित करने की और दुःखों के अन्त की क्षमता है। इस विशाल सामर्थ्य के कारण गांधी ने अहिंसा को प्रचण्ड शक्ति के रूप में स्वीकार किया-'मैं तो अहिंसा को जगत की महा-प्रचण्ड शक्ति समझता हूँ।' यानि अहिंसा की शक्ति का कोई माप नहीं है। उनकी दृष्टि में अहिंसा एक सर्वश्रेष्ठ शक्ति है। प्रस्तुति दी-मेरी अहिंसा सख्त चीज की बनी हुई है। वैज्ञानिकों को सबसे मजबूत जिस धातु का पता होगा उससे भी यह ज्यादा मजबूत है। इतने पर भी मुझे खेदपूर्वक इस बात का ज्ञान है कि हमें अभी इसकी असली ताकत प्राप्त नहीं हुई है। अगर वह प्राप्त हो गयी होती, तो संसार में हिंसा की जिन अनेक घटनाओं को मैं असहाय रूप में रोज देखा करता हूँ उनसे निपटने का रास्ता भगवान् मुझे सुझा देता।
गांधी का यह दृढ़ विश्वास था ‘अहिंसा और शायद अकेली अहिंसा ही विष को अमृत में बदलने की शक्ति रखती है। बहुत से लोग यह स्वीकार करते हैं कि आज के चारों और फैले विष को अमृत में बदलने का एक मात्र मार्ग अहिंसा ही है किन्तु उनमें इस स्वर्णिम मार्ग को अपनाने का साहस नहीं है। मैं डंके की चोट से कह सकता हूँ कि अहिंसा कभी असफल नहीं रही। लोग बेशक अहिंसा की ऊंचाई तक नहीं पहुंच सके।' यह उनका आकलन था।
अहिंसा में तीव्र कार्यसाधक शक्ति भरी हुई है। इसमें जो अमोघ शक्ति है उसकी अभी पूरी खोज नहीं हुई है। 'अहिंसा के समीप सारे वैरद्वेष शांत हो जाते हैं, यह सूत्र शास्त्रों का प्रलाप नहीं है बल्कि, ऋषि का अनुभव-वाक्य है। जाने-अनजाने, प्रकृति की प्रेरणा से, सब प्राणियों ने एक-दूसरे के लिए कष्ट उठाने का धर्म पहचाना है और उसके आचरण द्वारा संसार को निभाया है। तथापि इस शक्ति का संपूर्ण विकास और सब कार्यों और प्रसंगों में इसके प्रयोग के मार्ग का अभी ज्ञानपूर्वक शोधन-संगठन नहीं हुआ है। हिंसा के मार्गों के शोधन और संगठन करने का मनुष्य ने जितना दीर्घ उद्योग किया है और उसका बहुत अंशों में शास्त्र बना डालने में सफलता पाई है, उतना यदि अहिंसा की शक्ति के शोधन और संगठन के लिए करे तो मनुष्य जाति के दुःखों के निवारणार्थ यह एक अनमोल अचूक और परिणाम में उभय पक्ष का कल्याण करने वाला साधन सिद्ध होगा। स्पष्टतया
अभेद तुला : एक विमर्श / 379