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सन् 1946 में नोआखाली जिले में, जहाँ मुसलमानों ने हिन्दुओं पर भयंकर अत्याचार किये थे, वे छुरियां लिए गाँव-गाँव घूम रहे थे, किसी हिन्दू की वहाँ जाने की हिम्मत नहीं होती थी। ऐसी स्थिति में गांधी उन गाँवों में पैदल चलकर पहुंचे और मुसलमानों को शान्ति का सन्देश सुनाया। सरकारी सुरक्षा से उपरत एवं मारक षड्यन्त्र से सावधान करने वालों से गांधी का उत्तर था ‘ऐसा क्यों न हो? उनका भी तो इस शरीर पर अधिकार है। यदि मुझे अपने देशबन्धुओं से ही डर लगने लगे तो मुझे इसी समय से नेतापन को नमस्कार कर देना चाहिए। उनकी समझ में मेरी देश सेवा में कोई भूल होगी तभी तो वे मुझे मारना चाहते हैं, उसमें उनकी नेकनियती है, फिर भला उन्हें किस तरह दोष दूं। निश्चित रूप से गांधी का आत्म मंथन कितना प्रबुद्ध था।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयत्न में गांधी ने स्वयं को ऐसे क्षेत्रों में नियोजित किया जहाँ अशांति की संभावना थी। प्रसंग 13 अगस्त 1947 का है। गांधी वोलीघाट के मुसलमान के घर में रहने के लिए पहुंचे ही थे कि कुछ हिंदू युवक उनके शांति प्रयत्नों के खिलाफ प्रदर्शन करने को आ धमके। गांधी ने युवकों को समझाया.....भाई-भाई की इस लड़ाई को रोकना क्यों आवश्यक है। बंगाली युवक बदले हुए मन-मस्तिष्क से अपने घरों को लौट गये। यह एक चमत्कार था। उनके इस जादुई प्रभाव से कलकत्ता के हालात में रातोंरात परिवर्तन हो गया। दंगा रुक गया। आजादी की अगवानी का दिन 14 अगस्त दोनों कौमों ने संयुक्त रूप से साथ मिलकर मनाया।
31 अगस्त को कोलकाता में पूनः दंगा होने से गांधी के शांति प्रयत्नों को गहरा धक्का लगा। उन्होंने पहली सितंबर से अनशन शरू करने की घोषणा कर दी-जब तक कलकत्ते में शांति स्थापित न होगी. वह अपना उपवास नहीं तोड़ेंगे। उनका दृढ़ विश्वास था 'जो मेरे कहने से न हुआ, वह शायद मेरे उपवास से हो जाये।' उपवास की घोषणा ने सारे कलकत्ते को हिला दिया......। मुसलमान विचलित हो उठे और हिंदू लज्जा से नतमस्तक। दोनों कौमों के नेताओं ने आपस में शांति बनाये रखने की प्रतिज्ञा की और गांधी से प्रार्थना की वो अपना अनशन समाप्त कर दें। गांधी ने इस शर्त के साथ उपवास तोड़ा कि यदि फिर शांति भंग हुई तो वो आमरण अनशन कर देंगे।12 इस मंतव्य से स्पष्ट होता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता हेतु गांधी ने अहिंसा का जीवंत प्रयोग कर दुनिया के समक्ष सफलता की मिसाल कायम की थी।
गांधी से भिन्न परिस्थितियों में महाप्रज्ञ ने हिन्दू-मुस्लिम एकता का स्वर बुलंद किया। साम्प्रदायिक सौहार्द में ही सभी का भला है। मानव-मानव के प्रति करुणा और मैत्री का भाव जागे। सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य रहे। इस दिशा में अपनी शक्ति के नियोजन हेतु कृत संकल्प महाप्रज्ञ ने गुजरात में उठे साम्प्रदायिक वैमनस्य को शांत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। साम्प्रदायिक सद्भाव कायम हो इस हेतु हिन्दू और मुसलमान प्रमुख लोगों से विशद् वार्तालाप किया। अहिंसा यात्रा के मध्य सिद्धपुर, ऊंझा आदि गाँवों के हिन्दू-मुसलमान लोगों से महाप्रज्ञ ने कहा-शान्ति के लिए आवश्यक है कि सब लोग परस्पर विश्वास से रहें। साथ-साथ जीना है और विकास करना है तो इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं है।....एक दूसरे के प्रति भय से रहना, यह राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। कोई आदमी दूसरे के साथ मिलने से संकुचाता है तो वैसी अवस्था में व्यापार-व्यवहार कैसे चलेगा? वास्तव में अहिंसा केवल धर्म ही नहीं है। वह नीति और कूटनीति भी है। इसे हमें अच्छी तरह समझना होगा।13
शांति और विकास के अन्तरसंबंध को बतलाते हुए महाप्रज्ञ ने गुजरात में हिन्दू-मुस्लिम भाइयों के सामने एक बात रखी-गरीबी, अशिक्षा आदि से मुक्ति पाने के लिए विकास आवश्यक है। लड़ाई
अभेद तुला : एक विमर्श / 393