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उसने कहा- 'अमुक गाँव से अमुक गाँव की ओर जाते हुए मैं आपसे रास्ते में मिला था। आपने उपदेश सुनाया था। इसके बाद मैंने आपकी सभाओं में कई बार अपनी हाजरी लगाई और आपके प्रवचन सुने। अब मैंने अपना धंधा बंद कर दिया।'
मैने पूछा-'कौन-सा धंधा?'
उसने कहा-'भाड़े पर मर्डर करने का। कल ही एक लाख की सुपारी मुझे मिल रही थी। मैंने साफ मना कर दिया। कह दिया कि अब मैं यह काम छोड़ चुका हूँ।'108
परिवर्तन की स्वात्मकथा का बयान करते हुए पुलिसकर्मी श्री डुगले ने बताया-मेरी ड्यूटी गुरू महाराज (महाप्रज्ञ) की सेवा में लगी। सेवा के साथ मुझे बड़ा आनंद आया। मैं यहाँ पूर्णतः तनावमुक्त रहा। मैंने अपनी ड्यूटी से अधिक समय काम किया तथा पूरी नैतिकता के साथ अपने कर्तव्य का पालन किया।
हमारे विभाग में कई लोग हफ्ता वसूली करते हैं पर मैं अहिंसा यात्रा के प्रणेता से प्रेरणा लेता हूं कि कभी अनैतिक कार्य नहीं करूंगा। व्यवसनमुक्त रहूँगा।
अनेक व्यक्ति परिवर्तन के साक्षी हैं। मराठा भील आदिवासी शिवदास कोचा, जो कभी शराबी था, सत्संग से जीवन में नया रंग खिला। संकल्प पूर्वक नशामुक्त बना और अपने क्षेत्र की पुलिस पाटिल पर पदासीन हुआ। महाप्रज्ञ की प्रेरणा से घर-घर प्रचार किया, उससे प्रभावित होकर 300 से अधिक लोगों ने नशे का परिहार किया। यह महाप्रज्ञ के पारदर्शी व्यक्तित्व का चमत्कार था। जिसके संपर्क में आकर हजारों-लाखों लोगों ने बदली हुई फिजा का अनुभव किया। एक भाई के शब्दों में-'मेरी पुत्रवधू की बड़ी जटिल प्रकृति थी, किंतु प्रेक्षाध्यान शिविर में महाप्रज्ञ के सान्निध्य में आने के बाद इतना अंतर आ गया, जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता।' ऐसे परिवर्तन के अनेक प्रसंग घटित हुए हैं। अहिंसा को व्यापक संदर्भो में समझकर ही जीवन को समाजोपयोगी बनाया जा सकता है। व्यापक प्रयत्नों से महाप्रज्ञ ने अहिंसक व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। हिन्दू-मुस्लिम एकता राष्ट्र के अमनचैन एवं सौहार्दपूर्ण सहवास की पृष्ठभूमि में महात्मा गांधी एवं आचार्य महाप्रज्ञ दोनों के हिन्द-मस्लिम एकता के प्रयत्न महत्त्वपर्ण साबित हए है। यद्ध से यद्ध का. हिंसा से हिंसा का समाधान गांधी की दष्टि में गलत था। किसी भी प्रकार के संघर्ष का स्थायी रूप से निदान अहिंसक साधनों के द्वारा ही हो सकता है, चाहे वह संघर्ष व्यक्ति का आन्तरिक हो या दो व्यक्तियों का आपसी हो अथवा वह सामाजिक, राजनैतिक-साम्प्रदायिक हो-सभी संघर्षों का निदान एक मात्र अहिंसा में है-यह गांधी का दृढ़ विश्वास था। उनके शब्दों में 'मेरा यह विश्वास है कि साम्प्रदायिक संघर्षों को रोकने के लिए भी अहिंसा का हथियार उसी प्रकार कारगर सिद्ध हो सकता है जिस प्रकार वह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लड़ी गई हमारी स्वतंत्रता की लड़ाई में कारगर सिद्ध हुआ है। उस समय लोगों ने अहिंसा द्वारा लड़ने में मेरा साथ दिया था, क्योंकि वे जानते थे कि जबरदस्त ब्रिटिश हथियारों का मुकाबला और किसी तरह नहीं किया जा सकता। किन्तु वह दुर्बलों की अहिंसा थी। साम्प्रदायिक लड़ाई में उस अहिंसा से काम नहीं चल सकता। उसके लिए तो वीरों की सच्ची अहिंसा की आवश्यकता है।" तदनुरूप गांधी ने अपनी शक्ति को नियोजित किया। अभय के बल पर उन्होंने एकता के प्रयत्नों में सफलता पाई।
392 / अँधेरे में उजाला