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को सहिष्णता से
महाप्रज्ञ ने अहिंसा के सूक्ष्म स्वरूप को प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया-अहिंसा का अर्थ-केवल 'मत मारो' इतना ही न लें। वह तो है ही पर किसी को सताओ मत, पीड़ा मत पहुँचाओ, किसी का शोषण मत करो। किसी के साथ अन्याय मत करो। समस्त प्राणीमात्र को अपनी आत्म तुला के समान समझने का प्रयत्न करें। सबको अपनी आत्म तुला पर तौलें। जो व्यवहार आपको पसन्द नहीं है, वह व्यवहार आप भी किसी के साथ न करें। यह अहिंसा का सूक्ष्म आचरणात्मक पक्ष है। उनकी दृष्टि में अहिंसा का सूक्ष्म स्वरूप है- 'अपने कुत्सित भावों पर नियंत्रण करना, प्रत्येक परिस्थिति
ता से सहना। भावावेश में किसी कार्य को न करना।104 वास्तव में भावनात्मक अहिंसा महत्त्वपूर्ण है। जब तक भावनात्मक स्तर पर अहिंसा का विकास नहीं होगा इसकी अनुपालना अपूर्ण रहेगी।
अपने जीवन में अहिंसा के सूक्ष्म स्वरूप को महाप्रज्ञ ने जीया है। अतः उनकी अहिंसा साधना स्थूल से सूक्ष्म की ओर कैसे गतिशील बनी यह महत्त्वपूर्ण विषय है। उन्होंने आत्मावलोकन के क्षणों में इस प्रश्न को समाहित करते हए लिखा-मैं देखता हूँ एक दिन मैंने संकल्प किया था. मैं अहिंसा का पालन करूँगा। उस समय मेरे लिए अहिंसा का अर्थ था-जीवों को न मारना। जहाँ जीव न मरे, वहाँ भी हिंसा हो सकती है, यह मेरे लिए अतर्कणीय था।
जीव-दया की अर्थ-गरिमा भी कम नहीं है। आत्मतुला के भाव की चरम परिणति में अतुल आनन्दानुभूति होती है। समय-समय पर मुझे इसकी अनुभूति हुई है। मैं जैसे-जैसे बड़ा हुआ, सहधर्मियों की मनोभूमिका पर विहरने लगा, तब मुझे प्रतीत हुआ मेरी अहिंसा की समझ अधूरी है। अहिंसा की परिपूर्ण वेदिका के निर्माण के लिए मैं तड़प उठा। मैंने समझा अहिंसा का अर्थ है, परिस्थिति के मर्म-भेदी परशु से मर्माहित न होना। इस कुशल जगत् में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जो परिस्थिति के मृदु पुष्प से प्रमत्त और कठोर वज्र से आहत न हो। मुझे लगा जो व्यक्ति अपनी जीवन धारा को परिस्थिति के प्रभाव-क्षेत्र की ओर प्रवाहित कर देता है, वह अहिंसा की अनुपालना नहीं कर सकता। परिस्थिति की मृदुता से आनेवाली मूर्छा के साथ-साथ चेतना मूर्छित हो जाती है और उसकी कठोरता से उपजने वाली कुण्ठा के साथ-साथ वह कुण्ठित हो जाती है।
अहिंसा चेतना की स्वतंत्र दशा है। जो सर्दी से अभिभूत हो जाए, वह स्वतंत्र नहीं हो सकती। जो गर्मी से अभिभूत हो जाए, वह भी स्वतंत्र नहीं हो सकती। स्वतंत्र वह हो सकता है, जो किसी से अभिभूत न हो। अब मेरी अहिंसा का प्रकाश-स्तम्भ यही है। इसमें प्राणी-दया के प्रति मेरा मन पहले से अधिक संवेदनशील बना है। दूसरे की पीड़ा में अपनी पीड़ा की तीव्र अनुभूति होने लगी है। यदि मैं परिस्थिति की कारा का बंदी बना बैठा रहता तो दूसरों के प्रति निरन्तर संवेदनशील नहीं रह पाता। 05 कथन के आलोक में स्पष्ट है कि महाप्रज्ञ ने सूक्ष्म अहिंसा को केवल प्रतिपादित ही नहीं किया अपने जीवन में इसे साधा, साधना का आधार बनाया। तथ्यतः मनीषियों ने समयसमय पर अहिंसा की सूक्ष्मता को आंका और अपने जीवन में उसे उतारा है। व्यक्ति सुधार से राष्ट्र सुधार किसी भी राष्ट्र की मूलभूत इकाई व्यक्ति है। व्यक्ति का निर्माण ही राष्ट्र का सच्चा निर्माण है। इस संबंध में महात्मा गांधी और आचार्य महाप्रज्ञ एकमत थे। इस दिशा में उनके प्रयत्न स्तुत्य रहे हैं। अहिंसा की पृष्ठभूमि में व्यक्तित्व निर्माण संबंधी गांधी का कथन था-'अहिंसा का उद्देश्य उत्पीड़न
390 / अँधेरे में उजाला