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शिक्षा का आश्रमी आदर्श
1. लड़कों और लड़कियों को एक साथ शिक्षा देनी चाहिये। यह बाल्यावस्था आठ वर्ष तक
मानी जाये। 2. उनका समय मुख्यतः शारीरिक काम में बीतना चाहिये और यह काम भी शिक्षक की देखरेख
में होना चाहिये। शारीरिक काम को शिक्षा का अंग माना जाये। 3. हर लड़के और लड़की की रुचि को पहचानकर उसे काम सौंपना चाहिये। 4. हर एक काम लेते समय उसके कारण की जानकारी करानी चाहिये। 5. लड़का या लड़की समझने लगे, तभी से उसे साधारण ज्ञान देना चाहिये। उसका यह ज्ञान
अक्षर-ज्ञान से पहले शुरू होना चाहिये। 6. अक्षर-ज्ञान को सुन्दर लेखन-कला का अंग समझकर पहले बच्चे को भूमितिकी आकृतियां
खींचना सिखाया जाये; और उसकी अंगुलियों पर उसका काबू हो जाये, तब उसे वर्णमाला लिखना सिखाया जाए। यानि उसे शुरू से ही शुद्ध अक्षर लिखना सिखाया जाये। 7. लिखने से पहले बच्चा पढ़ना सीखे। यानि अक्षरों को चित्र समझकर उन्हें पहचानना सीखे
और फिर चित्र खींचे। 8. इस तरह से जो बच्चा शिक्षक के मुँह से ज्ञान पायेगा, वह आठ वर्ष के भीतर अपनी शक्ति
के अनुसार काफी ज्ञान पा लेगा। 9. बच्चों को जबरन कुछ न सिखाया जाये। 10. वे जो सीखें उसमें उन्हें रस आना ही चाहिये। 11. बच्चों को शिक्षा खेल जैसी लगनी चाहिये। खेल-कूद भी शिक्षा का अंग है। 12. बच्चों को सारी शिक्षा मातृभाषा द्वारा होनी चाहिए। 13. बच्चों को हिन्दी-उर्दू का ज्ञान राष्ट्र भाषा के तौर पर दिया जाये। उसका आरम्भ अक्षर-ज्ञान
से पहले होना चाहिये। 14. धार्मिक शिक्षा जरूरी मानी जाये। वह पुस्तक द्वारा नहीं, बल्कि शिक्षक के आचरण और
___ उसके मुँह से मिलनी चाहिये। 15. नौ से सोलह वर्ष का दूसरा काल है। 16. दूसरे काल में भी अन्त तक लड़के-लड़कियों की शिक्षा साथ-साथ हो तो अच्छा है। 17. दूसरे काल में हिन्दू बालक को संस्कृत और मुसलमान बालक को अरबी का ज्ञान मिलना चाहिये।
शिक्षा का आश्रमी आदर्श / 415