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महाप्रज्ञ के जीवन में दैविक गुणों का अपूर्व योग था जिनमें प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, पदार्थ अप्रतिबद्ध चेतना, दैहिक निर्ममत्व जैसी विशेषताओं के साथ निस्पृहता और करुणा का मौलिक विकास देखा गया है। दीन दुःखियों की पीड़ा उनके दिल को कंपादेती थी, वे भीतर तक उद्वेलित हो उठते। करुणाद्र प्रसंगों पर उनकी टिप्पणी होती-‘पदयात्रा के दौरान उन लोगों को देखा जो स्वतंत्र देश के नागरिक होने के बावजूद अभाव की जिन्दगी जीते हैं। उनका सारा समय और सारा श्रम दो समय की रोटी के जगाड में ही बीत जाता है। वह भी पूरी नहीं मिलती है। उन्हें और उनके बच्चों को कभी-कभी भूखे ही सोना पड़ता है। हमने (महाप्रज्ञ) उनसे पूछा की दो समय का भोजन भी नहीं मिल पाता तो उस समय आप क्या करते हो? उन्होंने कहा-'महाराज, बस ऐसे ही डांटकर, मारकर या पुचकारकर सुला देते हैं।'69 ऐसे अनेक प्रसंग उनके सन्मुख आते रहे हैं। महाप्रज्ञ ने बताया दो दिन से एक आदमी मेरे पास बार-बार आ रहा हैं, कल भी आया था। बताता है कि बहुत गरीब हूँ घर में कुछ नहीं है पत्नी बीमार है, हम क्या करें? इस तरह के कितने ही प्रसंग आते हैं। अहिंसा यात्रा में हम किसी गाँव में जाते, लोग गाँव से निकलकर सड़कों पर आ जाते। सबकी एक ही समस्या 'महाराज गाँव में पानी नहीं।' फिर आगे की समस्या बताते–'महाराज! खाने को घर में एक दाना नहीं हैं। रहने को टूटी-फूटी झोंपड़ी है। आपके पास तो सरकार के लोग भी आते हैं। आप उनसे कहें कि हम गरीबों की समस्या सुलझाएँ।'
'मेरे मन में आया किससे कहूँ? कौन है उत्तरदायी? कौन लेगा इस समस्या को सुलझाने की जिम्मेदारी?.....समाधान कैसे होगा?.....भूख की समस्या, रोटी की समस्या के प्रति जो एक स्वस्थ आर्थिक नीति होनी चाहिए, वह नहीं है। यह भूख की समस्या बहुत विकराल है और आने वाले दशकों में क्या होगा, कहा नहीं जा सकता। उद्योग जगत और सरकारी तंत्र को इस समस्या पर विचार करना चाहिए।'70 इस मंतव्य के संदर्भ में जान सकते हैं कि महाप्रज्ञ के भीतर करुणा का कैसा प्रवाह था। संन्यस्त जीवन की मर्यादा में जितना संभव होता उपयुक्त मार्ग-दर्शन भी करते।
जब आचार्य तुलसी ने महाप्रज्ञ को युवाचार्य पद पर नियुक्त किया उस समय उन्होंने विनम्र निवेदन किया-'यदि आप मुझे पदवी से मुक्ति दें, तो मुझे प्रज्ञा की साधना करनी है।' यह थी उनकी पद के प्रति अनासक्ति। उनको उपाधि की परवाह नहीं की। निरूपाधिक चेतना के संवाहक महाप्रज्ञ का मन सरल बालक की तरह निश्छल, निष्कपट था। प्रवंचनाओं और प्रपंच से बचे रहने की उनकी सहज बुद्धि थी। सरलता उनकी अपनी पहचान बनीं। दैनिक विश्वमित्र (कोलकाता) के संपादक कृष्णचन्द्र अग्रवाल के शब्दों में-महाप्रज्ञ निरभिमान हैं, सरल स्वभाव के 'सर्वजन हिताय, सवर्जन सुखाय' मनीषी हैं जो बड़े विद्वानों में कम होते हैं। वे एक अपढ़ श्रावक से उसी की भाषा-भावना से वार्तालाप कर सकते हैं जिस सरलता के साथ विश्व के प्रसिद्ध धर्म-गुरु दलाई लामा के साथ। कथन में महाप्रज्ञ की नैसर्गिक सहजता का निदर्शन है जो उनकी अहिंसक चेतना का निर्झर थी।
महाप्रज्ञ के भीतर करुणा का अजस्र स्रोत प्रवहमान था। अपनी मर्यादाओं के भीतर रहकर वे हर संभव प्रयत्न दीन दुखियों के दुःखों को दूर करने में करते रहे हैं। जब-जब अभावग्रस्त लोगों को देखते उनका हृदय करुणाद्र बन जाता। दूसरों के कष्ट कारक छोटे-छोटे प्रसंग उनको भीतर तक कंपित कर देते। उसका एक छोटा सा उदाहरण उपयुक्त होगा-'जब कभी प्रवचन में बहुत देरी हो जाती है तब (महाप्रज्ञ) सोचता हूँ-साधु भिक्षा के लिए जाते हैं, पैर जलते हैं। मन में कम्पन होता है कि उन्हें कष्ट दिया जा रहा है। समय की सीमा प्रायः रखी जाती है पर यदा-कदा होने वाला विलम्ब महाप्रज्ञ के करुणाद्र मानस को कचोटने लग जाता।
378 / अँधेरे में उजाला