Book Title: Andhere Me Ujala
Author(s): Saralyashashreeji
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 389
________________ के न केवल पक्षधर थे अपितु प्रयत्नशील भी रहे हैं। इसकी मिसाल है उनकी कृति ‘कैसे रहे परिवार के साथ' । जिसमें धर्म की अवधारणा को नया परिवेश मिला है। तथाकथित धार्मिक के जीवन व्यवहार ने धार्मिक मूल्यों का ह्रास किया है। झगड़ालू प्रकृति, धोखाधड़ी पूर्ण व्यवहार के चलते वर्तमान पीढ़ी का बढ़ता अनास्थाभाव, धर्म के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टि में बदलाव की अनिवार्यता देख आचार्य महाप्रज्ञ ने धर्म और धार्मिक के अन्तरविरोध का सटीक शब्दों में चित्रण किया है। उनकी सोच में धर्म मात्र परलोक सवारने की प्रक्रिया नहीं है। इससे वर्तमान जीवन भी आनंददायी बनता है। पारिवारिक संबंधों में मधुरता परिलक्षित होती है। सामाजिक और राजनैतिक धरातल पर नैतिकता पूर्ण व्यवहार होता हे। अपेक्षा है धर्म के सही तत्त्व को जीवन में अपनाने की। महाप्रज्ञ ने बताया कालबद्ध और क्षेत्रबद्ध धर्म की साधना से भी व्यापक धर्म है जो चौबीस घंटे होता है। सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, नैतिकता, सदाचार आदि ऐसे ही व्यापक धर्म हैं। जब तक चौबीस घंटे वाला व्यापक धर्म हमारे जीवन में नहीं उतरता तब तक समस्याएँ भी बनी रहेंगी। स्वयं को धार्मिक मानने वालों से महाप्रज्ञ का आह्वान था-कसौटी करते रहना चाहिए कि धर्म से हमारा वर्तमान सुधर रहा है। जीवन में सकारात्मक परिवर्तन कितना आ रहा है? व्यवहार में कितना बदलाव आ रहा है? कसौटी न करें और जीवन भर आँख मूंदकर धर्म करते रहें तो इससे कुछ भी नहीं होगा। कोल्हू के बैल की तरह एक ही गोल घेरे में जीवन भर चक्कर लगाते जीवन बीत जाएगा, पहुँचेंगे कहीं नहीं। न घर के रहेंगे न घाट के। न इहलोक सुधरेगा न परलोक। प्रायोगिक धरातल पर आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्ररूपित अहिंसा प्रशिक्षण एवं अहिंसा यात्रा ऐसे उपक्रम हैं जिनके जरिये अहिंसा का प्रायोगिक रूप अधिक तेजस्वी और कार्यकारी बना है। समाज में अहिंसा के विकास के परिप्रेक्ष्य में उनका अभिमत है कि व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठापना के लिए भावनात्मक तनाव से मुक्त होना होगा। जब तक भावनात्मक तनाव है तब तक हिंसा से सर्वथा मुक्त होना असम्भव लगता है। अतः तनाव मुक्ति के प्रयोगों का अनुशीलन किया जाये, यह अपेक्षित है। इस अपेक्षा की पूर्ति में महाप्रज्ञ ने अनेक अहिंसक प्रयोग प्रस्तुत किये हैं। मनीषियों ने अहिंसा को व्यक्ति, समाज और राष्ट्र व्यापी बनाने के लिए इसके व्यापक प्रयोग प्रस्तुत किये जो उनकी प्रयोगधर्मा चेतना का सबूत है। सूक्ष्म मीमांसा अहिंसा के विकास की दृष्टि से हिंसा के सूक्ष्म स्वरूप का चिंतन अपने-अपने क्षेत्र में समान रूप से किया है। कार्य क्षेत्रीय भिन्नता के बावजूद सूक्ष्मता में अवगाहन मनीषियों की पारदर्शी प्रज्ञा का प्रमाण है। जीवन की अनिवार्यता पर सत्य को धूमिल न करके यथार्थ का निदर्शन अहिंसानिष्ठ चेतना का सबूत है। हिंसा की सूक्ष्मता में अवगाहन करते हुए गांधी ने कहा था 'कर्ममात्र सदोष है क्योंकि उसमें हिंसा समायी हुई है तो भी कर्म के क्षय के लिए कर्म ही करते हैं। देहमात्र पाप है। तो भी देह को तीर्थक्षेत्र बनाकर देह-मुक्ति की तैयारी करते हैं वैसे ही हिंसा को भी समझना चाहिये।' __ पर यह हिंसा हो कैसी? यह स्वाभाविक हो, कम से कम हो, इसके पीछे केवल करुणा हो, विवेक हो, मर्यादा हो, इसके विषय में तटस्थता हो, यह सहज प्राप्त धर्म हो। यह हिंसा के सूक्ष्म स्वरूप का चित्रण है इसमें हिंसा की अनिवार्यता का विवेक किया गया है। अनुभूति के आलोक में गांधी ने कहा था-इस जगत् में कोई भी देहधारी, कुछ अंश में हिंसा अभेद तुला : एक विमर्श / 387

Loading...

Page Navigation
1 ... 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432