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डाकुओं की टोली में उसकी आवश्यक सेवा करने, उसका भार उठाने, जब वह डाका डालता है, तब उसकी चौकीदारी करने, जब वह घायल हो तो उसकी सेवा करने का काम करता है, वह उस डकैती के लिए उतना ही जिम्मेदार है जितना कि खुद डाकू। इस दृष्टि से जो मनुष्य युद्ध में घायलों की सेवा करता है, वह युद्ध के दोषों से मुक्त नहीं रह सकता।
महाप्रज्ञ के साध्य-साधन संबंधी विचार तेरापंथ के आद्य प्रणेता आचार्य भिक्षु के सैद्धांतिक तथ्यों के वाहक होने के साथ उनमें मौलिकता है। साध्य और साधन की एकता के संबंध में महाप्रज्ञ का अभिमत रहा-आध्यात्मिक जगत् का साध्य है आत्मा की पवित्रता और उसका साधन भी वही है। आत्मा की अपवित्रता कभी भी आत्मिक पवित्रता का साधन नहीं बन सकती। पहले क्षण का साधन दूसरे क्षण में साध्य बन जाता है और वही उसके अगले चरण का साधन बन जाता है। पहले क्षण का जो साध्य है वह अगले क्षण के लिए साधन है। पवित्रता ही साध्य है और वही साधन है। साध्य और साधन की एकता के परिचायक ये विचार शुद्ध साध्य के लिए साधन की शुद्धि को प्रकट करते हैं। साध्य की सिद्धि में साधन को गौण नहीं किया जा सकता।
आचार्य महाप्रज्ञ ने साध्य-साधन की मीमांसा के मुख्य आधार का जिक्र किया-साध्य और साधन की एकता के विचार को आचार्य भिक्षु ने जो सैद्धान्तिक रूप दिया, वह उनसे पहले नहीं मिलता। शुद्ध साध्य के लिए साधन भी शुद्ध होने चाहिए।
साध्य-साधन संबंधी अपने विचारों को रखते हुए बताया-निर्वाण का मुख्य साध्य है-आदमी बदले। निर्वाण का अर्थ है आदमी का बदलना। आदमी की वृत्तियों का बुझ जाना। आदमी की वृत्तियों का शान्त हो जाना। हमारे सामने साध्य है कि आदमी बदले, आदमी की वृत्तियां बदले, दृष्टिकोण बदल, उसका चरित्र बदले । यह हमारा साध्य है। जब हृदय नहीं बदलेगा वे सारे कैसे बदलेंगे? उनको बदलने का एकमात्र कोई साधन है तो वह है चैतन्य का जागरण। जब चैतन्य जागता है हृदय का परिवर्तन होता है, तब ये सारी बातें बदल जाती है। यह काम न भय से हो सकता है और न बलप्रयोग से हो सकता है और न आर्थिक प्रलोभन से हो सकता है। इस संदर्भ में जब साधन-शुद्धि का विचार करते हैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना होता है कि अहिंसा का साधन हिंसा नहीं हो सकती। भय हिंसा है। बल प्रयोग भी हिंसा है। सत्ता का प्रदर्शन भी हिंसा है। आर्थिक प्रलोभन भी हिंसा है। धन से धर्म नही हो सकता। हिंसा से अहिंसा नहीं हो सकती। इस मंतव्य के परिप्रेक्ष्य में साध्य की सिद्धि में साधन की शुद्धि अनिवार्य है। विमर्शतः गांधी और महाप्रज्ञ दोनों साध्य की सिद्धि में साधन की शुद्धि को स्वीकारते थे। यद्यपि दोनों का साध्य-साधन संबंधी चिंतन भिन्न क्षेत्रों को प्रभावित करने पर भी अपने-अपने क्षेत्र में समान रूप से साधन शुद्धि पर बल देता रहा है। प्रयोग धर्मिता सैद्धांतिक तथ्यों के आधार पर अहिंसा को प्रायोगिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने में मनीषियों के प्रयत्न बेमिसाल हैं। अहिंसा की शक्ति से जन साधारण लाभान्वित हो इस हेतु प्रयोगों की सार्थकता स्वतः प्रमाणित है। गांधी ने अहिंसा को केवल नीति के रूप में ही नहीं स्वीकारा अपितु जीवन के प्रत्येक क्रिया-कलाप में उसको समरस बनाने का प्रयत्न किया। फिर चाहे प्रसंग ब्रह्मचर्य की साधना का हो अथवा आहार संयम का हो। अहिंसक चिकित्सा के रूप में मिट्टी और पानी के प्रयोग गांधी अक्सर किया करते थे। कस्तूरबा को स्वस्थ बनाने के निमित्त स्वयं आहार संयम का प्रयोग-एक
अभेद तुला : एक विमर्श / 385