Book Title: Andhere Me Ujala
Author(s): Saralyashashreeji
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 377
________________ प्रयोग नहीं होगा अहिंसा की चेतना का जागरण नहीं होगा। आस्था मुखर हुई-जीवन की समस्याओं का समाधान अहिंसा में है। यह उनकी अटूट अहिंसा आस्था का प्रमाण है। न केवल वैयक्तिक अपितु पारिवारिक सामाजिक और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान अहिंसा में बतलाया है। अहिंसा शाश्वत धर्म है। इसकी रचनात्मकता पर आचार्य महाप्रज्ञ की अटूट आस्था थीं। इस को अभिनव आयाम देते हुए 'अहिंसा-यात्रा' का उपक्रम किया जिसके आशातीत परिणाम निकले हैं। लोगों ने महाप्रज्ञ के इस दृष्टिकोण को समझा कि गरीबी, अशिक्षा, इत्यादि से मुक्ति पाने के लिए तथा विकास की पगडंडियां तय करने के लिए शांति आवश्यक है। महाप्रज्ञ ने जनजन की चेतना में आस्था का संचार कर उन्हें अहिंसा की दिशा में गतिशील बनने के लिए प्रेरित किया है। अहिंसा आस्था को जगाने का एक उपक्रम है-अणुव्रत आन्दोलन। व्यक्ति और समाज दोनों में अहिंसा की आस्था जागे तभी व्यापक परिवर्तन संभव होगा। महाप्रज्ञ मानते थे कि अहिंसा मात्र पारलौकिक ही नहीं है, भौतिक अभ्युदय में भी इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 'अहिंसा धर्म समाज के लिए तभी अधिक उपयोगी बन सकता है, जबकि उसका मूल्यांकन समाज की दृष्टि से किया जाए।'59 अहिंसा आस्था अनेक बार मुखर हुई। उन्होंने बताया कि अहिंसा हमारे जीवन की सफलता और शांति का अनिवार्य अंग है। अहिंसा है तो जीवन है। यह नहीं है तो जीवन टिक नहीं पाता। पर दुनिया इस सच्चाई को स्वीकार करने में हिचकिचाती है। जीवन के सही अर्थ को समझने के लिए इसे स्वीकार करना होगा। इस प्रकार वे जीवन-अस्तित्व के लिए अहिंसा को अनिवार्य मानते थे। यह उनकी अहिंसा आस्था का ही निदर्शन है कि वे अहिंसा के बिना शांतिपूर्ण जीवन की कल्पना नामुमकिन मानते। मनीषियों की अहिंसा आस्था उनके मन-वचन-कर्म से संपृक्त बनीं और सफलता का मार्ग प्रशस्त हुआ। विधायक सोच व्यक्ति की सोच उसके आंतरिक भावों का प्रतिबिम्ब है। जैसा भाव वैसा स्वभाव, जैसा स्वभाव वैसा व्यवहार। यह नैश्चयिक तथ्य है। इस संदर्भ में महात्मा गांधी और आचार्य महाप्रज्ञ की सोच समान रूप से सकारात्मक देखी जाती है। गांधी के जीवनवृत्त का अवलोकन एवं चिंतन का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है उनकी सोच सदैव सकारात्मक रही। जहाँ तक विरोधी विचारों के साथ ताल-मेल का प्रसंग होता वहाँ भी गांधी का विधायक दृष्टिकोण था। इसकी पुष्टि मे एक प्रसंग का उल्लेख उचित होगा-यद्यपि श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ कार्य के लिए मैं हिसात्मक पद्धति का अटल विरोधी हूँ अतएव हिंसावादियों के और मेरे मिलाप के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। इतना होने पर भी मेरा अहिंसाधर्म मुझे न केवल रोकता है बल्कि अराजकों और अन्य सभी हिंसावादियों से संपर्क रखने पर मजबूर करता है। किंतु यह संसर्ग केवल इसी आशय से है कि उन्हें मैं उस राह से बचाऊँ जो मुझे गलत दिखाई देती है। मुझे अपने अनुभव से विश्वास हो गया है कि स्थायी कल्याण असत्य और हिंसा का फल कभी हो ही नहीं सकता। प्रकट रूप से गांधी का दृष्टिकोण विधेयात्मक था। प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति में भी गांधी का विधायक भाव देखा गया। जिसका प्रखर उदाहरण है-कस्तूरबा की मौत पर गांधी द्वारा कहे गये शब्द-'हम दोनों बासठ वर्ष तक साथ रहे....और अभेद तुला : एक विमर्श / 375

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