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भटका लिया जाऊँ किन्तु यह हमेशा के लिए नहीं चल सकता। अतएव मैंने अपने लिए ऐसी कैद निश्चित कर ली है। जिसके दायरे के भीतर ही मुझ से काम लिया जा सकता है।
स्वतंत्रता आंदोलन के सिलसिले में गांधी के समक्ष प्रश्न उपस्थित किया गया- 'क्या आप उग्र राष्ट्रवादी की प्रवृत्ति प्रकट नहीं करते? और क्या आप यह नहीं समझते कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए दस लाख प्राणों का बलिदान कर देना खतरनाक आदर्श होगा।' इसे समाहित करते हुए कहा मैं नहीं समझता कि अपने निज के जीवन का बलिदान करना कोई खतरनाक आदर्श है और इन बहुमूल्य प्राणों का बलिदान तो वह देश करेगा, जिसे जबरदस्ती अनिवार्य रूप से शस्त्र-त्याग करना पड़ा है। आपको यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत अहिंसा के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है और इसलिए किसी दूसरे के प्राण लेने का वहाँ कोई प्रश्न ही नहीं है। हम अपने प्राणों को इतना सस्ता या फालतू नहीं समझते कि व्यर्थ के लिए उन्हें गँवा बैठें, किंतु साथ ही हमें दस लाख प्राणों का भी बलिदान करना पड़े तो हम कल ही करने को तैयार होंगे और इसपर आकाश में से ईश्वर यही कहेगा-शाबाश मेरे पुत्रों, शाबाश! हम अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। आप साम्राज्यवादी प्रकृति के लोग हैं। आपको दूसरे को भयभीत करने की आदत पड़ी हुई है। गांधी के इस स्पष्ट उत्तर में आत्म बलिदान और राष्ट्रप्रेम का जीवंत संदेश था। ऐसी शक्ति उनमें अहिंसा की आस्था से निष्पन्न हुई।
गांधी कहते थे-कोई भी राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को स्वतंत्रता का दान नहीं दे सकता। वह तो अपना खून देकर ही प्राप्त करनी अथवा खरीदनी पड़ती है, जो क्रिया सन् 1919 से अपने आप भारत में चल रही है उसमें हम अपना खून काफी दे चुके हैं। किन्तु यह हो सकता है कि ईश्वर की कृपालु दृष्टि में अभी ऐसा प्रतीत होता हो कि आत्म-शुद्धि की क्रिया में हम अभी पूरे नहीं उतरे। पर हमारी दृढ़ प्रतिज्ञा है कि जब तक कोई भी अंग्रेज भारत में शासक की तरह रहना अस्वीकार न करेगा, हम आत्म-बलिदान की इस क्रिया को बराबर जारी रखेंगे। अपने इस फौलादी संकल्प को गांधी ने पूरा कर दुनिया के सामने नये इतिहास का सृजन किया। अहिंसा प्रयोग की सार्थकता और वैज्ञानिकता को सिद्ध कर दिखाया।
गांधी ने दृढ़ता पूर्वक कहा अहिंसा की शिक्षा प्रत्येक धर्म में वर्तमान है, किन्तु मेरा विश्वास है कि हिन्दुस्तान में उसके आचरण को एक वैज्ञानिक रूप दिया गया है। अगणित ऋषि-मुनियों ने तपस्या करके अपने जीवन का उत्सर्ग किया है। किन्तु आज अहिंसा के उस आचरण का लगभग अन्त हो चुका है। क्रोध का उत्तर प्रेम से और हिंसा का अहिंसा से देने का सनातन नियम फिर से जीवित किया जाना चाहिए। विचारों को क्रियान्विति दी और जन-जन को आजादी की पृष्ठभूमि में अहिंसा के अनुपालन पर बल दिया। उन्होंने इस तथ्य को समझाया कि जो व्यक्ति तथा राष्ट्र अहिंसा का अवलंबन करना चाहे उन्हें आत्म सम्मान को छोड़कर, अपना सर्वस्व गंवाने के लिये तैयार रहना चाहिये।.....यह समझना जबदरस्त भूल है कि अहिंसा केवल व्यक्तियों के लिये ही लाभदायक है जन समूह के लिए नहीं। जितना वह व्यक्ति के लिये धर्म है उतना ही वह राष्ट्र के लिये भी धर्म है। इस कथन में अहिंसा संबंधी व्यापक दृष्टि का निदर्शन है।
भारत की आजादी में अहिंसा की भूमिका कहाँ तक रही यह चिंतनीय प्रश्न है, पर गांधी ने अपना विश्वास प्रकट करते हुए कहा 'मेरा विश्वास है कि अहिंसा का पालन ही हमें आजादी तक ले आया है। चाहे उसमें कितने ही दोष क्यों न रहे हों।' इस आत्म निवेदन में सत्यानुभूति का आलोक था। गांधी ने भारतीय आजादी के सफर को जो अहिंसा-सत्य का अपूर्व आधार दिया वह मानव
भेद दृष्टि के आधारभूत मानक / 353