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गांधी के प्रारंभ और कालान्तर के विचारों में एक बड़ा अन्तर पाया जाता है। उन्होंने कहा-बन्दर जिस जगह उपद्रव रूप हो गए हैं, उस जगह उनको मारने में जो हिंसा होती है, वह क्षम्य है। जब अकाल सामने हो तब अहिंसा के नाम पर फसल को उजड़ने देना मैं तो पाप ही समझता हूँ। इसी प्रकार एक प्रसंग में वे लिखते हैं-मछली या मांस खाने वाले को ये चीजें खाने देने में जो हिंसा होती है, उसे मैं हिंसा नहीं मानता। मैं उसे अपना धर्म समझता हूँ। इन्हीं विषयों पर वे प्रसंगान्तर से अपनी मान्यता दूसरी ही प्रस्तुत करते हैं-बन्दर को मार भगाने में मैं शुद्ध हिंसा ही देखता हूँ। उन्हें अगर मारना पड़े तो उसमें अधिक हिंसा होगी। यह हिंसा तीनों कालों में हिंसा ही गिनी जाएगी। उसमें बन्दर के हित का विचार नहीं है, किन्तु आश्रम के ही हित का विचार है। किसान जो हिंसा करता है, वह हिंसा अनिवार्य होकर क्षम्य हो सकती है, परन्तु अहिंसा नहीं हो सकती। प्लेग के चूहे और चींचड़ भी मेरे सहोदर हैं। जीने का जितना अधिकार मेरा है, उतना ही उनका है। इस तरह गांधी के पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती विचारों में अन्तर है। व्यवहार की दृष्टि से उन्हें जब जैसा लगा
प्रस्तुति दी।
___ हिंसा अहिंसा के संबंध में महाप्रज्ञ के विचार गांधी से सर्वथा भिन्न थे। हिंसा उनके लिए कभी अहिंसा नहीं बन सकी। सूक्ष्मता के साथ उन्होंने यथार्थ के धरातल पर तथारूप प्रस्तुति दी। महाप्रज्ञ के शब्दों में-सारा संसार जीवाकुल है-अनन्त-अनन्त जीव हैं। सूक्ष्म-स्थूल, त्रस-स्थावर-सभी प्रकार के जीव भरे पड़े हैं। एक अणमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है. जहाँ जीव का अस्तित्व न हो। आकाश का एक प्रदेश भी जीवमुक्त नहीं है। उस स्थिति में मुनि श्वास लेता है, चलता-फिरता है, उठता-बैठता है, सोता-जागता है, वह सब कुछ करता है। तब क्या यह संभव है कि उससे किसी जीव की हिंसा न हो? उसके शरीर के योग से कोई जीव न मरे, यह कभी संभव नहीं हो सकता। उसके प्रमाद से भी जीव हिंसा हो सकती है और अप्रमाद अवस्था में भी जीव हिंसा हो सकती है। कोई जीव ऊपर से उसके शरीर पर गिरकर मर सकता है। कोई जीव उसके पैरों के नीचे आकर मर सकता है। जाने अनजाने भी मर सकता है।
फिर अहिंसा का सर्वपालन कैसे होगा? उस स्थिति में यह प्रतिपादित किया गया कि अशक्य कोटि की हिंसा मुनि से भी हो जाती है। वह हिंसा करता नहीं किंतु हो जाती है। यह शरीर की अनिवार्यता है, इसलिए हो जाती है। किन्तु मुनि शरीर धारण के लिए उस हिंसा का आश्रयण नहीं ले सकता। इसमें इतना अन्तर आ गया।.....वह भोजन के लिए हिंसा का आश्रय नहीं लेगा, किन्तु उसका शरीर है, उसके योग से कभी हिंसा हो भी जाती है।” इस कथन के आलोक में स्पष्ट है कि हिंसा को हिंसा ही माना गया भले ही वह किसी भी स्थिति में क्यों न हो। जीवन यापन से जुड़ी अनिवार्य हिंसा को महाप्रज्ञ ने कभी अहिंसा नहीं माना। जहाँ तक अहिंसक सोच में गतिशीलता का प्रश्न है उन्होंने इस संदर्भ में सूक्ष्मता से आकलन किया है पर अहिंसा का मौलिक स्वरूप कभी धूमिल न होने दिया।
अहिंसा स्वरूप भेद अहिंसा के स्वरूप-मान्यता संबंधी गांधी और महाप्रज्ञ के विचारों में मौलिक अन्तर पाते हैं जिसकी एक झलक विमर्श्य है। गांधी की सोच में अहिंसा के विभिन्न रूप देखे जाते हैं। उन्होंने बताया 'दूसरों के लिए प्राणार्पण करना प्रेम की पराकाष्ठा है और उसका शास्त्रीय नाम अहिंसा है।' यह
370 / अँधेरे में उजाला