Book Title: Andhere Me Ujala
Author(s): Saralyashashreeji
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 370
________________ अहिंसा यात्रा का काफिला जहाँ भी पहुँचा लोगों ने सहर्ष स्वागत किया। जिसमें छत्तीस ही कौम का उत्साह देखते बनता था। जातपांत के भेदभाव से उपरत बिना किसी औपचारिकता के लोगों ने अहिंसा यात्रा के मिशन का भरपूर लाभ उठाया। मीलों तक कतार बंध लोगों ने अधिशास्ता की अगवानी में पलक पावड़े बिछाये, बाट निहारी। पूर्व पड़ाव से अगले पड़ाव की मंजिल तय करते समय अनेकदा आचार्य महाप्रज्ञ एवं युवाचार्य महाश्रमण के प्रवचन/उद्बोधन एक से पाँच चरणों (पाँच बार) में संपादित हुए। विभिन्न ट्रस्ट एवं संगठनों के लोगों ने अहिंसा यात्रा के मिशन को व्यापक बनाने का संकल्प किया। हिन्दू-मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, सिन्धी आदि विभिन्न धर्मों से जुड़े लोगों ने इसकी अनशंसा की. भाग लिया. यग की अपेक्षा बतलाते हए सफलता की मंगल कामना की। निष्पत्तियों के केनवास पर अहिंसा यात्रा ने जन-जन की अहिंसक चेतना को जगाने में अहं भूमिका अदा की है। एक करोड़ से भी अधिक लोग संभागी बनें। नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा इसका कालजयी आलेख है। विशेषरूप से सामाजिक एकता, अहिंसा प्रशिक्षण, रोजगार प्रशिक्षण, ग्रामोत्थान, राष्ट्रनिर्माण एवं विश्व शांति के सार्थक प्रयत्न इसकी अमिट यादगार है। मिशन के साथ संपादित नगर, डगर, गाँव, कर्बट पहुँची अहिंसा यात्रा का स्वर आज भी बुलंद है सदियों तक स्मृतियों में शेष रहेगा। अहिंसा यात्रा ने गांधी की डांडी यात्रा की स्मृतियों को नये शिरे से उकेरा और अपनी अभिनव छाप लोगों के दिलों में अंकित की है। यद्यपि दोनों के संदर्भ स्थितियाँ सर्वथा भिन्न हैं पर अहिंसा की शक्ति का चमत्कार दोनों यात्राओं में विशेषाधिक रूप से कार्यकारी बना है। अहिंसक सोच अहिंसक सोच के संदर्भ में गांधी और महाप्रज्ञ के चिंतन में मौलिक भेद है। महात्मा गांधी की अहिंसक सोच में गतिशीलता का निदर्शन है। ठहराव उन्हें मान्य नहीं था। अपने चिंतन को आकार देने में चाहे बहुमत की चर्चा का पात्र भले क्यों न बनना पड़ा पर उन्हें जहां जैसा उचित लगा उसे अंजाम दिया। मनुष्य एवं मनुष्येतर प्राणियों के प्रति गांधी का अहिंसा संबंधी मन्तव्य स्पष्ट था। अधिकांशतया उन्होंने प्राणीमात्र के वध को हेय माना परन्तु यदा-कदा प्राणियों द्वारा सताये जाने अथवा उनकी सेवा-सुरक्षा संभव न होने पर प्राणहरण को भी स्वीकृत किया। बछड़े का वध गांधी के जीवन का प्रसिद्ध उदाहरण बन गया। पशु डॉक्टर की सलाह में बछड़े के इलाज की आशा खत्म है। बछड़ा छटपटा रहा है, करवट बदलने में भी उसे कष्ट होता था। मुझे (गांधी) लगा कि ऐसी स्थिति में इस बछड़े का प्राण लेना ही धर्म है, अहिंसा है। अन्त में दीन भाव से किन्तु दृढ़ता पूर्वक पास में रहकर मैंने डॉक्टर के द्वारा जहर की पिचकारी डलवाकर बछड़े का प्राणहरण किया। प्रसंग के संदर्भ में महात्मा गांधी की अहिंसा संबंधी सोच प्रगतिशील ठहरती है। उनके अनुसार हत्या उस समय हिंसा नहीं मानी जा सकेगी, जिस समय किसी के प्राण उसी के अच्छाई या हित में लिये जायें। जहाँ स्वार्थ-भावना से प्राणहरण किया जाये वह जघन्य अपराध है। अनाग्रह भाव से गांधी ने यह भी स्वीकारा कि वास्तविक रीति से मेरा माना हुआ धर्म अधर्म भी हो सकता है पर कई बार अनजाने से भूल किये बिना भी धर्म का पता नहीं चलता है। बछड़े की घटना से जाहिर है कि गांधी का करुणा भाव कभी-कभी इतना सक्रिय बना कि उनसे पर कष्ट दर्शन मात्र असह्य हो गया और ऐसी घटना उनके द्वारा घटित की गई। 368 / अँधेरे में उजाला

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