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अपने इस कृत्य को औचित्य पूर्ण मानते हुए गांधी ने प्रीतम को उद्धृत किया ‘प्रेम-पथ पावकनी ज्वाला भालो पाछा भागे जाने' अर्थात् 'प्रेम-पथ आग की लपट है। उसे देखकर ही लोग भागते हैं। अहिंसा धर्म का पंथ प्रेम-पंथ है। इस पंथ में आदमी को बहुत बार अकेले ही विचार करना पड़ता है।
पुष्टि में कहा : ऐसे दृष्टांतों की कल्पना की जा सकती है जबकि मारने में ही अहिंसा हो और न मरने में हिंसा। मान लो कि मेरी लड़की कोई राय देने लायक न हो। उस पर कोई आक्रमण करने आ जाय। मेरे पास उसे जीतने का कोई दूसरा मार्ग मिले ही नहीं तो मैं लड़की का प्राण लूँ और आक्रमणकारी के तलवार के वश होऊँ तो उसमें मैं शुद्ध अहिंसा देखता हूँ। उनकी दलील थी-जिस तरह रोगी के भले के लिए उसके शरीर में चीरफाड़ करने में डॉक्टर हिंसा नहीं करता, बल्कि शुद्ध अहिंसा ही पालन करता है, उसी तरह मारने में भी अहिंसा का पालन हो सकता है। भाषित है कि सामाजिक दायित्व बोध अथवा कर्तव्य बोध को भी गांधी ने हिंसा-अहिंसा की तुला पर ला खड़ा किया और अहिंसा का चोगा पहना दिया।
जिस हिंसा का उद्देश्य अहिंसा का क्षेत्र बढ़ाना हो, जो हिंसा अनिवार्य हो पड़े, जो ऐसी हो जिसके लिए परिणाम का विचार किये बिना प्रयत्न किया जा सके, वह हिंसा क्षन्तव्य है; कर्तव्य भी हो सकती है। इसलिए यह कहना सरासर अनुचित नहीं है कि हिंसा में अहिंसा हो सकती है।" उनकी यह स्वतंत्र सोच थी जिसे तर्क की कसौटी पर नहीं रखा जा सकता।
अहिंसा के साथ धर्म और अधर्म का विवेक जुड़ा हुआ है। मैं जिस अहिंसा का पुजारी हूँ, वह केवल जीव-दया नहीं है। जैन धर्म में जीव-दया पर खूब जोर दिया गया है। वह समझ में आता है, मगर उसका यह मतलब हरगिज नहीं है कि इन्सान को छोड़कर हैवानों पर दया की जाय। देहधारी को कुछ न कुछ हिंसा तो करनी ही पड़ती है?
मुझे खेती करनी हो, जंगल में रहना हो, तो खेती के लिए लाजिमी (अनिवार्य) हिंसा करनी ही पड़ेगी। बंदरों, परिंदों और ऐसे जन्तुओं को, जो फसल खा जाते हैं, खुद मारना होगा या ऐसा आदमी रखना होगा जो उन्हें मारे। दोनों एक ही चीज हैं। जब अकाल सामने हो, तब अहिंसा के नाम पर फसल को उजड़ने देना मैं तो पाप ही समझता हूँ। पाप और पुण्य स्वतंत्र चीजें हैं। एक ही चीज एक समय पाप और दूसरे समय पुण्य हो सकती है। प्रकट रूप से गांधी की अहिंसा संबंधी अवधारणा में पाप-पुण्य की कल्पना जैन मान्यता से भिन्न थी।
विचारों की थाह पाने की मंशा से प्रश्न उपस्थित किया गया कि कैनेडी के पुत्र पर सिंह ने आक्रमण किया हो उस समय उसको क्या करना चाहिए? गांधी ने बताया 'यदि कैनेडी यों ही खड़ाखड़ा देखता रहता और उसके बच्चे को सिंह फाड़कर खा जाता है तो यह किसी सूरत या शकल में अहिंसा न होती। बल्कि निरी हृदयहीन कायरता होती, जो अहिंसा के विपरीत है।' तथ्यतः गांधी कायरता को हिंसा मानते थे। अनेक प्रसंगों पर कहा-यदि हिंसा और कायरता में से किसी एक का चुनाव करना हो तो मैं हिंसा को अपनाऊँगा।
गतिशील अहिंसा के आलोक में उनकी भावना को इस रूप में जाना जा सकता है कि स्वार्थ या क्रोध में किसी भी जीव को कष्ट दिया जाये या उसके अनिष्ट अथवा प्राण-हरण की इच्छा भी की जाये तो वह हिंसा है। निःस्वार्थ बुद्धि से, शांत चित से, किसी भी जीव की भौतिक या आध्यात्मिक भलाई के लिए उसे जो दुःख दिया जाये या उसका प्राणहरण किया जाये वह अहिंसा हो सकती
न अपने आपमें अन्वेषणीय है कि क्या ये अहिंसक कहे जायेंगे। अंत में अहिंसा की परीक्षा का आधार भावना पर रहता है।
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भेद दृष्टि के आधारभूत मानक / 369