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ज्ञान और आचार की प्रतिष्ठा का प्रथम सोपान है - नैतिकता । व्यक्ति अपने आपको धार्मिक तो कहता है पर नैतिकता को जीने का प्रयास नहीं करता । नैतिकता शून्य धर्म विस्मय का विषय है ....... आदमी कोरा अनुयायी ही न बनें। वह सही अर्थों में धार्मिक बनें। इससे व्यक्ति और धर्म दोनों तेजस्वी बनेंगे ।" कथन में एक ओर वर्तमान की विकृत धार्मिक मानसिकता का चित्रण है वहीं दूसरी ओर धार्मिकों को आत्मनिरीक्षण का अवकाश भी मिला है। इस मंतव्य में महाप्रज्ञ के कर्मक्षेत्रीय कौशल का अनूठा उदाहरण देखा जा सकता है। वर्तमान के संदर्भ में वे अपने कर्त्तव्य एवं दायित्व के प्रति पूर्ण सजग रहे हैं । इसका प्रतिबिम्ब शब्दों में देखते है - हमें यदि अहिंसा के वातावरण का निर्माण करना है तो दो-तीन बातों पर ध्यान देना होगा
पहली बात है - मैं जातीयता और साम्प्रदायिक कट्टरता में विश्वास नहीं करूँगा। मेरा सम्प्रदाय ही अच्छा है, दूसरे सब खराब हैं, इस अवधारणा ने हिंसा को फैलाने में जड़ का कार्य किया है। दूसरी बात है- कोई किसी भी धर्म का आयोजन करे, उत्सव मनाए, मैं उसमें हस्तक्षेप नहीं करूँगा ।
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तीसरी बात - मैं खण्डनात्मक नीति का प्रयोग नहीं करूँगा । ये संकल्प ही धर्म-सम्प्रदायों से अहिंसा के वातावरण के निर्माण हेतु पर्याप्त हैं । " अपने कथन की पुष्टि में महाप्रज्ञ लिखाते हैं भावी पीढ़ी को हम अच्छा बनाना चाहतें हैं तो एकता के संस्कार का निर्माण करें। संप्रदाय, जाति, वर्ण आदि के आधार पर किसी को ऊँच-नीच न मानें। अहमदाबाद में हमारी मौजूदगी में हिन्दू-मुसलमानों के बीच पुलिस अधिकारियों साथ जब शांति समझोते की शर्त लिखी जा रही थी तो उसमें एक मुख्य धारा यह थी कि किसी भी संप्रदाय का पर्व, त्यौहार आदि कुछ हो तो दूसरे संप्रदाय के लोग उसका सम्मान कर सकें और उसमें भाग ले सकें तो बहुत अच्छा, किंतु अगर ऐसा संभव न हो पाए तो कम से कम उसमें किसी प्रकार की बाधा तो न डालें।" प्रस्तुत मंतव्य इंगित करता है कि महाप्रज्ञ सामाजिक धरातल पर किस कदर भाईचारे और पारस्परिक प्रेम को प्रखर बनाने में प्रयत्नशील बने रहे हैं। उनके प्रयत्न मानवता को उजागर करने में महत्त्वपूर्ण साबित हुए है
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अपने कर्तव्य के साथ साधनामय जीवन के प्रति आचार्य महाप्रज्ञ पूर्ण सजग थे। ठहराव उन्हें मान्य नहीं था। सतत् गतिशीलता ही उनका संकल्प बना । अखण्ड अहिंसा की आराधना ही उनका लक्ष्य रहा है। वे कहते - " अहिंसा में मेरी आस्था है, उसके प्रयोग भी करता रहता हूँ । किन्तु हिंसा के चिर-संचित संस्कारों को चीरकर मैं अहिंसा की प्रतिष्ठा कर चुका हूँ, यह मैं मानूँ तो मेरा दम्भ होगा। मैं इतना ही मान सकता हूँ कि मैं अहिंसा की दिशा में चल रहा हूँ । कब तक कहां पहुँच पाऊँगा ? - यह प्रश्न केवल वर्तमान से ही जुड़ा होता तो मैं इसके उत्तर की रेखा खींच डालता किंतु यह प्रश्न मेरे अतीत से भी जुड़ा है, इसलिए अहिंसा की दिशा में चल रहा हूँ, इससे आगे कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है ।
‘मैं जो हूँ, वही रहूँ' इस मनोवृत्ति में मेरी कोई आस्था नहीं है और इसलिए नहीं है कि इससे मैं अहिंसा की पौध को पनपते देखता हूँ ।'
‘मैं अपूर्ण हूँ और पूर्ण होना चाहता हूँ यही मेरी अहिंसा का आदि-बिंदु है । अपूर्ण पूर्ण होगा, जब जो है, वह नहीं रहेगा और जो नहीं है, वह होगा ।" इस आत्मालोचन में परिपूर्ण अहिंसा विकास की अन्तः अभिप्सा मुखर है । प्राणवान अहिंसा को शब्दों में प्रस्तुति मिली - 'अहिंसा शब्द मेरे लिए कोई नया शब्द नहीं है । मैंने केवल अहिंसा का संकल्प ही नहीं किया, उसे जीया है । अहिंसा
356 / अँधेरे में उजाला