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ठीक विपरीत वीतराग परिणति का नाम अहिंसा है। हिंसा-अहिंसा का प्रायः संबंध दूसरों से जोड़ा जाता है। दूसरों की हिंसा न करे, बस यही अहिंसा है, इस आम धारणा से परे जैन धर्म ने यहाँ तक कहा कि व्यक्ति अपनी हिंसा भी करता है। आत्म-हत्या ही नहीं, दूषित विचार मात्र हिंसा है।
अहिंसा की परिभाषा का उत्तरोत्तर विकास हुआ है। किसी जीव को मत मारो-यह अहिंसा . है। यहाँ से अहिंसा का सिद्धांत चला और विकसित होते-होते अनेक गहराइयों को पार करते हुए राग-द्वेष मुक्त क्षण की भूमिका पर आरूढ़ हो समता के शिखर को छू गया। ऐतिहासिक विश्लेषण से स्पष्ट है कि अहिंसा की परिभाषा का क्रमशः विकास हुआ है। जैन साहित्य में अहिंसा की अनेक परिभाषाएं अंकित हैं। वे सभी अहिंसा की सूक्ष्म प्रतिपादना हेतु विनिर्मित हुई। अहिंसा को धर्म का पर्याय बतलाया- 'अहिंसा का पालन करना धर्म है, करवाना धर्म है और उसके पालन का अनुमोदन करना भी धर्म है।' धर्म की आराधना में अहिंसा की अपरिहार्यता बतलाकर एक नया अध्याय जोड़ा।
भगवान् महावीर अहिंसा दर्शन के प्रणेता हैं। उनकी अहिंसा के हृदय को छू पाना सुगम नहीं है। जैन भिक्षु की अहिंसा पृथ्वी, पानी, वनस्पति, वायु और अग्नि पर्यंत अनिवार्य बनी। निशीथ में पृथ्वी-पानी आदि की हिंसा संबंधी अनेक मासिक तथा चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के विधान मिलते हैं। प्राणी मात्र को आत्मतुला से तौलना भगवान् महावीर का अहिंसा वैशिष्ट्य ही कहा जायेगा। उन्होंने कहा-'लोक में विद्यमान छोटे-बड़े सभी प्राणियों को जो आत्मा के समान देखता है वो ही अहिंसा है।'82 इसका आधारभूत वचन है-'जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी छोटे-बड़े प्राणियों को दुःख प्रिय नहीं है।' ये कथन आत्म-तुल्यता को प्रमाणित करते हैं।
जो व्यक्ति सभी प्राणियों को आत्मा के समान देखता है, जिस चैतन्य प्रमाण वाली मेरी आत्मा है, उसी परिणाम वाली आत्मा सबकी है। हाथी और कुंथु की आत्मा भी समान परिमाण वाली है। इस समता भाव से मध्यस्थ भाव फलित हुआ-'समूचे जगत् को समता की दृष्टि से देखने वाला किसी का भी प्रिय-अप्रिय न करें-मध्यस्थ रहे।' समता की धुरी पर आत्मतुला का सिद्धांत प्रतिष्ठित कर भगवान् महावीर ने अभिनव अहिंसा का सूत्रपात किया। उनका आत्मतुला की चेतना का विकास बहुत विशाल था, जिसमें षड्जीव निकाय की आत्मानुभूति समाहित थी। इसका प्रमाण गौतम स्वामी के जिज्ञासा-समाधान में खोजा जा सकता है। गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-'भंते! पृथ्वीकायिक जीव आक्रांत होने पर किस प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं? भगवान् ने कहा-गौतम! जैसे एक तरुण और शक्तिशाली मनुष्य दुर्बल और जर्जरित मनुष्य के मस्तक पर मुष्ठि से जोर का प्रहार करता है, उस समय वह कैसी वेदना का अनुभव करता है?' भंते! वह अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है?
गौतम! जैसे वह जर्जरित मनुष्य अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है, उससे भी अनिष्टत्तर वेदना का अनुभव पृथ्वीकायिक जीव आहत होने पर करता है। इसी प्रकार सभी जीव ऐसी ही घोर वेदना का अनुभव करते हैं।'83 स्पष्ट रूप से किसी भी मान्यता, अवधारणा से सर्वथा अप्रभावित प्राणीमात्र के स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति जैन दर्शन की जगत् को मौलिक देन है। भगवान् महावीर का प्रतिपादन था- 'पुढोसत्ता' यानी प्रत्येक प्राणी का स्वतंत्र अस्तित्व है। तुम्हें दूसरे की स्वंतत्रता को कुचलने का कोई अधिकार नहीं है। अहिंसा के विश्लेषण में यह स्पष्ट हुआ-यह संसरणशील प्राणी अनेक बार महान् बन चुका है और अनेक बार साधारण। कौन छोटा है और कौन बड़ा? सब छोटे हैं और सब बड़े। जाति, कुल, बल, रूप के आधार पर ऊँच-नीच की कल्पना मिथ्या है।
विभिन्न दर्शनों में अहिंसा / 49