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पूर्ववृत्त
कर्म-कौशल और क्रियान्विति की धुरा पर प्रतिष्ठित महात्मा गांधी और आचार्य महाप्रज्ञ की सोच से उपजा सत्य वैज्ञानिक युग का दिशा दर्शन है। मनीषियों ने जिन शाश्वत मूल्यों को जीया और व्यापक पैमाने पर प्रस्थापित किया उनमें समाधान की अपूर्व क्षमता है। अहिंसा संबंधी मौलिक विचारों में से कतिपय तथ्यों का विमर्श प्रस्तुत अध्याय में 'अहिंसा संबंधी विचारों में 'भेद, अभेद एवं समन्वय' के रूप में किया गया है।
गांधी और महाप्रज्ञ के न केवल विचारों में ही समानता दृष्टिगोचर होती है अपितु जीवन व्यवहार के अनेक पक्षों में यथा-निस्पृहता, श्रमशीलता, खाद्य संयम, अनासक्ति, नियमित दिनचर्या, दृढ़ निश्चयता, करुणा-परोपकारिता, राष्ट्रोत्थान की भावना में साम्यता का निदर्शन है। इतना ही नहीं शारीरिक दृष्टि से भी काफी समानता गोचर होती। अहिंसा सोच में कई मौलिक समानताएँ
. अहिंसा दोनों मनीषियों के चिन्तन का केन्द्र बिन्दु है, व्यापक रूप से इसके पालन पर
बल दिया है। अहिंसा के मनसा-वाचा-कर्मणा अनुशीलन पर बल दिया है। अहिंसा विकास के संदर्भ में अवस्था का कोई प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि गांधी ने तो यहाँ तक कहा-मझे ऐसा नहीं लगता कि मेरी देह छटने के बाद मेरा विकास बन्द हो जायेगा। अहिंसा पर चली लेखनी का जहाँ तक प्रश्न है, दोनों में वैचारिक विकास का प्रवाह निरंतर प्रवर्धमान बना। गांधी ने कहा-मेरे एक ही विषय पर लिखे दो लेखों में कहीं विरोधाभास लगे तो बाद के लेख को प्रमाणभूत मानें। महाप्रज्ञ ने जीवन के 8-9 दशक में अहिंसा
पर जितना कहा-लिखा उतना पूर्व में नहीं। अहिंसा संबंधी चिंतन में व्यापक समानताओं के बावजूद असमानाताएँ भी देखी जाती हैं, जो स्वाभाविक हैं। दोनों का कार्यक्षेत्र भिन्न-भिन्न दिशाओं में गतिमान हुआ है। भिन्नता के कतिपय संदर्भ हैं
गांधी को मरणशील को मृत्युदान, संपत्ति सुरक्षा हेतु हिंसा का वरण मान्य था, पर महाप्रज्ञ ने सर्वथा-सर्वदा हर स्थिति में अहिंसा के अनुपालन पर बल दिया। गांधी ने अहिंसा के संगठित प्रयोग पर बल दिया-राजनैतिक, सामाजिक आंदोलन में इसका उपयोग उनकी इस सैद्धांतिक मान्यता का व्यावहारिक रूप था। महाप्रज्ञ प्रथमतः व्यक्तिगत
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