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द्वेष के कारण नहीं, बल्कि इनके प्रति राग के कारण ही युद्ध हुए हैं। रामायण और महाभारत के युद्ध इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं।
राम-रावण का युद्ध दैविक और आसुरी शक्ति के संघर्ष स्वरूप प्रसिद्ध है। राम चरितमानस के पष्ठ सोपान लङ्काकाण्ड में राम-रावण के युद्ध का विस्तार से वर्णन है। युद्ध संबंधी नैतिक नियमों की झलक इस पंक्ति में पाते हैं- 'संध्या होने पर दोनों ओर की सेनाएं लौट पड़ी ; सेनापति अपनीअपनी सेनाएं संभालने लगे। दूसरी ओर राम का रावण के साथ युद्ध असीम मनोबल का र है। बिना युद्ध सामग्री के भी युद्ध सामग्री संपन्न किसी भी समुदाय, व्यक्ति या राष्ट्र से लड़ना अपने आपमें अतुल आत्मशक्ति का परिचायक है। शस्त्र युक्त एवं वियुक्त द्वैध देखकर किसी भी व्यक्ति के मन में संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। ऐसा ही संदेह रामपक्ष को देखकर विभीषण के मन में पैदा हुआ था-'रावण को रथारूढ़ एवं रधुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गये, मन संदेह से भर गया और बोल पड़े-हे नाथ! आपके न रथ है, न रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवीर रावण किस प्रकार जीता जायेगा?17 यह सुन राम ने विभीषण की मानसिक व्यथा का निराकरण करते हुए गूढ़ तथ्य का उद्घाटन किया जो उनकी जीवंत अहिंसा आस्था का सबूत है।
राम की दृष्टि में विजयश्री प्रदान करवाने वाले रथ का स्वरूप था-शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिये हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका है। बल, विवेक, दम (इन्द्रियों का वश में होना) और परोपकार-ये चार उसके घोड़े हैं। जो क्षमा, दया और समतारूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं। ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचंड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है। निर्मल (पाप रहित) और अचल स्थिर मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना) (अहिंसादि) यम और शौचादि नियम ये बहुत से बाण, ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है। हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिये जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है। जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है। (रावण की तो बात ही क्या है।)18 राम ने पाश्विक बल पर आत्मिक बल से विजय पायी। राम की विजय कहानी अनैतिकता की ताकत के बीच नैतिकता की विजय पताका की साक्षी है।
प्राचीन काल में कुछ लोग युद्ध को प्रोत्साहन देते थे। संस्कृत साहित्य में इस विषय के अनेक सूक्त आज भी उपलब्ध हैं
'जिते च लभ्यते लक्ष्मी, मृते चापि सुरांगना।
क्षणभंगुरको देहः, का चिन्ता मरणे रणे॥' अर्थात् युद्ध में मरने वाला स्वर्ग में जाता है। इस मान्यता को बहुत व्यापक रूप दिया गया। भगवान् महावीर ने उक्त मान्यता का खंडन किया। उन्होंने युद्ध के मूल कारणों पर विचार किया और उसकी जड़ को सिंचन न मिले वैसी विधियों का निर्देश दिया। भगवान् महावीर इस संसार में अहिंसा के सबसे बड़े प्रवर्तक हुए हैं। उन्होंने अहिंसा को जितना मूल्य दिया, उतना महत्त्व किसी को नहीं दिया। महावीर युद्ध की भाषा में बोले, लड़ाई की भाषा में बोले, जय और पराजय की
अहिंसा एक : संदर्भ अनेक / 63