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हुए गांधी ने कहा-'वह अपनी बलि दे, अपने प्राणों का उत्सर्ग करें, यह अहिंसक की मर्यादा है पर दूसरे के प्राणों का उत्सर्ग करें, यह अहिंसक की मर्यादा नहीं है।' कथन की पुष्टि में कहा-बड़ी से बड़ी उत्तेजना के आगे भी डटे रहने और पस्त हिम्मत न होने की ताकत अहिंसक में न हो, तो उसकी कोई बड़ी कीमत नहीं हो सकती। चाहे जितनी उत्तेजना के सामने टिके रहने की शक्ति में ही उसकी सच्ची कसौटी है। स्त्रियों का सतीत्व लूटा गया हो और उसे अपनी आँखों देखने वाले अहिंसावादी साक्षी हो, तो वे जीवित कहां से रहेंगे। आशय स्पष्ट है कि अहिंसक कायर नहीं हो सकता। उसके भीतर बुराई से संघर्ष करने का पर्याप्त सामर्थ्य होता है।
गांधी का मानना था कि अहिंसक एक भी काफी होता है, उस एक से भी जगत् को आश्वासन मिलेगा। आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में अहिंसक की मर्यादाएं सख्त होती है। एक सच्चा अहिंसक मौत की घड़ियों में भी धैर्य को नहीं छोड़ता। किसी भी परिस्थिति में अंतःकरण की शांति भंग नहीं करता। मारने की क्षमता रखता हआ भी मारता नहीं यह अहिंसक की दिव्य शक्ति का प्रमाण है। वह अपनी तरफ से सभी को अभय बना देता है। अहिंसक अपने प्राण का विसर्जन कर सकता है, किन्तु मारने वाला नहीं हो सकता। अहिंसक और कायरता में कोई संबंध नहीं है। भीरू आदमी अहिंसक नहीं हो सकता। अहिंसक को धमकियां और बन्दर 'घुड़कियां' भी सहनी पड़ती हैं।
अहिंसा का तेज ही अहिंसक को तेजस्वी बनाता है। उसका तेज विशिष्ट गुणों के समाचरण से बढ़ता है। विशेष रूप से सदभावना का विकास मैत्री या प्रेम का विकास। अपने विरोधी के प्रति भी मन में पूरी सद्भावना जिसके मन में नहीं होगी, वह सफल अहिंसक नहीं हो सकता। महात्मा गांधी ने बहुत गहरी भेद रेखा खींची थी पापी और पाप के बीच में। पाप या बुराई के प्रति घृणा का भाव हो सकता है किन्तु व्यक्ति के प्रति नहीं, पापी के प्रति नहीं। जब इस सद्भावना का विकास होता है तभी अहिंसा की संभावना की जा सकती है.....सद्भावना के लिए अनिवार्य है कष्ट-सहिष्णुता का विकास।.....अहिंसक व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी कष्ट-सहिष्णुता का विकास करता है और समय पर अहिंसा के लिए आने वाले बड़े-से-बड़े कष्ट को झेलने की वह क्षमता रखता है।
प्रतिक्रिया करना भी अहिंसक की मर्यादा नहीं है। उस समय अहिंसक की मर्यादा है-वह मौन हो जाए। वह सोचे-मैंने इसे समझाया, मेरा कर्तव्य तो मैंने निभा दिया। ऐसा विचार होना बड़ा कठिन है पर जिसने हृदय से अहिंसा को अपनाया है, उसकी मर्यादा को समझा है उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। समय पर शांत-मौन रहकर भी अपनी शक्ति का परिचय दे सकता है। अहिंसक की मर्यादा उसे उत्पथगामी नहीं होने देती। अतः अहिंसक अपने दोषों को छिपाने की बात भी नहीं जानता। वह अपनी भूलों को दूसरे के सामने रखकर अपने को हल्का अनुभव करता है। इसके लिए आत्मबल का विकास जरूरी है। अहिंसक के समक्ष आगे बढ़ने का एक पवित्र लक्ष्य होना चाहिए।
निर्भयता अहिंसक का मौलिक गुण है। भय से कायरता आती है, कायरता से मानसिक कमजोरी और उससे हिंसा की वृत्ति बढ़ती है। यह अहिंसक की मर्यादा के प्रतिकूल है अतः अहिंसक को न मौत का डर, न अनिष्ट का डर, न अलाभ का डर सताता है। अहिंसक को अकेलेपन का डर भी नहीं होना चाहिए।
महाप्रज्ञ ने लिखा-'अहिंसाव्रती को वैसी वस्तुएं नहीं खानी चाहिए, जिनसे आवश्यकतापूर्ति कम हो और हिंसा अधिक। उसे स्वाद के लिए कुछ भी नहीं खाना चाहिए और मादक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। ये अहिंसक की मौलिक मर्यादाएं दूसरों के लिए आदर्श है एवं स्वयं के लिए
200 / अँधेरे में उजाला