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के बीच पिता-पुत्र का सम्बन्ध होगा, एक दूसरे के प्रति आदर होगा। ऐसे अहिंसामय वातावरण में पले हुए विद्यार्थी सबके प्रति उदार होंगे, वे सहज ही समाज सेवा के लिए लायक होंगे। अहिंसा रूपी अग्नि में अहं भस्म हो गया होगा। उसका व्यवहार सबके लिए मानवोचित होगा। आचार्य महाप्रज्ञ ने गांधी के शिक्षा संबंधी विचारों को गति प्रदान की। इस सच्चाई को पकड़ा कि आज का व्यक्ति अहिंसा की बात को भूल-सा गया है। उपाय का प्रश्न; किस उपाय से अहिंसा के मूल्य को पुनः प्रस्थापित किया जाए महत्त्वपूर्ण है? आचार्य महाप्रज्ञ की हंस मनीषा ने उपाय खोजा कि बचपन से ही अहिंसा की आस्था उत्पन्न की जाए। शिक्षा के साथ इस संस्कार को पुष्ट किया जाएं कि 'सब जीव समान है।' दूसरा मनुष्य वैसा ही है जैसा मैं हूँ। और जैसा मैं हूँ, वैसा ही दूसरा मनुष्य है। इतनी आस्था उत्पन्न हो जाए तो मानवीय व्यवहार बदल जाए और यह बचपन में ज्यादा संभव है, क्योंकि उस अवस्था तक दूसरे संस्कार हावी नहीं होते, प्रभावी नहीं बनते।
महाप्रज्ञ बल पूर्वक कहते-जरूरत है दृष्टिकोण बदलें, चिंतन बदलें। शिक्षा परिवर्तन का सबसे बड़ा माध्यम है। शिक्षा को हम परिवर्तन के द्वारा कैसे ज्यादा से ज्यादा सार्थक और कार्यकारी बनाएं, जिससे प्रारंभ से ही विद्यार्थी में नैतिकता के संस्कार बनें।
प्रारंभ से ही शिक्षा के साथ अगर सीमाकरण का बोध कराया जाए, संयम का पाठ पढ़ाया जाए तो मस्तिष्क का विकास होगा, चरित्र का भी विकास होगा। दोनों का संतुलन बहुत जरूरी है। जीवन में चरित्र और ज्ञान-दोनों का योग होना चाहिए। ........शिक्षा के साथ इसकी बहुत संगति बैठती है कि प्रारम्भ से ही बच्चों में वैसी अवस्थाओं का निर्माण किया जाए जिनकी अपेक्षा समाज रखता है। और जिन्हें हम सामाजिक मूल्य के रूप में विकसित करना चाहते हैं। शिक्षा का उद्देश्य था-व्यक्तित्व का निर्माण। आज की शिक्षा उस उद्देश्य को प्राप्त करने में सक्षम नहीं है। उच्च शिक्षा का पर्याप्त विकास होने के बावजूद, उसकी नई-नई शाखाएं (जो अतीत में नहीं थी) खोलने के बाद भी व्यक्ति की आपराधिक, पाश्विक प्रवृत्तियों में कोई अन्तर नहीं आया, वरन् उनमें बढ़ोतरी ही हुई है। इसकी तह में जायें तो शिक्षा व्यवस्था भी त्रुटिपूर्ण अनुभव होगी। हम विद्यार्थी को कभी भी अहिंसा का प्रशिक्षण नहीं देते. न ही उसे कभी शांति का प्रशिक्षण देते हैं। शिक्षा इसीलिए आज प्रश्नों के घेरे में हैं।
शिक्षा का परिणाम अच्छा आचार, अच्छा संस्कार नहीं आ रहा है, इसलिए परिणाम अपेक्षा के अनुसार नहीं आ रहा है। अच्छा बीज है-संतुलित ज्ञान। शरीर का ज्ञान, मन का ज्ञान और बुद्धि का ज्ञान। इनके संदर्भ में हमने बहुत विचार करने के पश्चात् जीवन विज्ञान का प्रकल्प दिया। जिसमें शिक्षा की चतुष्पदी-आदर्श, उद्धेश्य, पद्धति और सामग्री पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया गया है।
शिक्षा का आदर्श है-स्थितप्रज्ञता। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान, जीवनमरण आदि द्वन्द्वों की स्थिति में जिसकी प्रज्ञा समत्व की अनुभूति करने लग जाती है वह स्थितप्रज्ञ होता है।
शिक्षा का उद्देश्य है-सर्वांगीण व्यक्तित्व का विकास। उसके चार अंग हैं-शारीरिक विकास, बौद्धिक विकास, मानसिक विकास और भावनात्मक विकास।
पद्धति-सिद्धांत और प्रयोग-दोनों का संतुलन अपेक्षित है। शिक्षा की सामग्री के चार महत्त्वपूर्ण अंग हैं. उद्देश्य की पूर्ति करने वाली पुस्तकें।
204 / अँधेरे में उजाला