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चाहिए जिससे किसी को भी अन्न और वस्त्र के अभाव की तकलीफ न सहनी पड़े। धन का समान वितरण मेरा (गांधी का) आदर्श है। लेकिन जहाँ तक मैं देख सकता हूँ वह आदर्श सिद्ध नहीं किया जा सकता। इसलिए मैं धन के 'न्यायपूर्ण' वितरण के लिए काम करता हूँ। आर्थिक समानता अहिंसापूर्ण स्वराज्य की मुख्य चाबी है। आर्थिक समानता के लिए काम करने का मतलब है, पूँजी और मजदूरी के बीच के झगड़ों को हमेशा के लिए मिटा देना।
जब तक मुट्ठीभर धनवानों और करोड़ों भूखे रहने वालों के बीच बेहद अंतर बना रहेगा, तब तक अहिंसा की बुनियाद पर चलने वाली राज्य-व्यवस्था कायम नहीं हो सकती। यह तो अहिंसक जन चेतना के जागरण से ही संभव होगी। आर्थिक समानता समाज के धरातल पर उतरे तभी गांधी का समतापूर्ण अहिंसक समाज घटित हो सकता है। आर्थिक समानता का अर्थ है सबके पास समान संपत्ति का होना यानि सबके पास इतनी संपत्ति का होना, जिससे वे अपनी कुदरती आवश्यकताएं पूरी कर सकें। आर्थिक समानता का आधार धनिकों का ट्रस्टीपन है। इस आदर्श के अनुसार धनिक को अपने पडोसी से कौडी भी ज्यादा रखने का अधिकार नहीं है।108 गांधी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत की मूलभूत भावना थी कि धनिक अपने धन के मालिक नहीं ट्रस्टी हैं। यह श्रम और पूँजी के बीच का संघर्ष मिटाने, विषमता और गरीबी हटाने तथा आदर्श एवं अहिंसक समाज की स्थापना करने में योगभूत बनता है। इसके अन्तर्गत अर्थव्यवस्था में पूँजीपतियों या मालिकों को समाज-हित में अपना स्वामित्व छोड़कर ट्रस्टी बनने का अवसर दिया जाता है। आर्थिक क्षेत्र में यह चिंतन गांधी की न केवल भारतीय समाज हेतु अपितु विश्व समाज-व्यवस्था के लिए भी अनुपम देन है। ___'ट्रस्टीशिप सिद्धांत' को नैतिक और आध्यात्मिक परिवेश देने वाले आचार्य महाप्रज्ञ के विचार आर्थिक विषमता को मिटाने हेतु मौलिक हैं। वे कहते-'जब तक राष्ट्र और समाज में व्यक्ति को कम-से-कम उसके जीवन निर्वाह की चीज सुलभ न हो, किसी को धन कुबेर बनने का अधिकार नहीं हैं।' कथन में 'ट्रस्टीशिप सिद्धांत' की अर्थात्मम का अवबोध है। उन्होंने आर्थिक समस्या को समाहित करने वाले भगवान महावीर के दो सूत्रों का उल्लेख किया-इच्छा परिमाण और भोगोपभोग परिमाण। जब तक इच्छा और भोग का संयम नहीं होगा, तब तक न तो अहिंसक समाज संरचना का सपना साकार होगा और न ही आर्थिक समस्या सुलझ पाएगी। वर्ग-संघर्ष की क्रांतियां, हिंसक क्रांतियां इसीलिए होती हैं कि व्यक्ति लोभी और स्वार्थी बन जाता है........यह स्थिति ही क्रांति को जन्म देती है। उनके शब्दों में गरीबी का चरम बिंदु और अमीरी का चरमबिंदु-ये दोनों ही आदमी को हिंसा की ओर ले जाते हैं। हमें इनके बीच का रास्ता खोजना है। मैंने इस विषय में बहुत अध्ययन किया। बहुत गहराई में जाकर इस पर विचार किया तो मुझे लगा कि शायद दुनिया में हिंसा को बढ़ाने के लिए बड़े और अमीर लोग ही सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। हमें इस तरह के दर्शन का निर्माण करना है। जहां ये दोनों बिंदु (अमीर और गरीब) न रहे। वह रास्ता नहीं जो आदमी को हिंसा की
ओर ले जाए। हमें उन रास्तों का निर्माण करना है जो आदमी को अहिंसा और शांति की ओर ले जाए।
एक और भी पगडंडी है जो आदमी को हिंसा की ओर ले जाती है, वह है अभाव की संकरी गली। हिंसा का एक और जनक है, जिसे अतिभाव कह सकते हैं। यह अतिभाव का रोग बड़े लोगों का रोग है। जिन्हें धन का अपच हो रहा है, समझ लें कि वे अतिभाव की बीमारी से ग्रस्त हैं। मुझे तो पता नहीं, पर सुनता हूँ कि अतिभाव की बीमारी से पीड़ित लोग जिनकी दुनिया आधी रात
232 / अँधेरे में उजाला