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की चर्चा महाप्रज्ञ ने की। उसकी प्रक्रिया है-कायोत्सर्ग की मुद्रा में बैठ जाएँ और निर्विचार अवस्था का अभ्यास करें। मस्तिष्क को एक बार विचारों से खाली कर दें, शून्य कर दें। वह निर्विचार और निर्विकल्प बन जाए। मस्तिष्क में कोई विचार नहीं और कोई विकल्प नहीं। निर्विकल्प होने का मतलब है कालातीत हो जाना। न कोई अतीत की स्मृति, न कोई भविष्य की कल्पना और न कोई वर्तमान का चिन्तन । तीनों कालों से मुक्त।......कुछ क्षण निर्विचार रहें, निर्विकल्प रहें। इस अभ्यास से एक प्रकार से मस्तिष्क की धुलाई शुरू हो जाती है। ब्रेन वाशिंग का क्रम शुरू हो जाता है। यह मस्तिष्कीय धुलाई व्यक्ति को आगे बढ़ा देती है। जब पाँच मिनट या दस मिनट तक इस अवस्था का अभ्यास कर लें, फिर नया मोड़ लें कि दस मिनट निर्विकल्प रहें। फिर दस मिनट प्रयोग करें निषेधात्मक विचारों को खोजने का कि दिमाग में कहाँ-कहाँ निषेधात्मक भाव और विचार भरे पड़े हैं, संचित हैं। उन्हें खोजने का प्रयास करें। उन्हें टटोलें, खोजें। यह क्रम दस मिनट तक चले। दस मिनट तक विधायक भावों, विधायक विचारों को दोहराते रहें। यह 40 मिनट के प्रशिक्षण का क्रम बन गया। एक प्रयोगात्मक पाठ बन गया। चालीस मिनट का यह प्रयोग अहिंसा प्रशिक्षण का पहला प्रयोग बन जाएगा। निर्विचार अवस्था, निषेधात्मक भावों को बाहर निकालने का उपक्रम, विधायक भावा को स्थापित करने का प्रयत्न और विधायक भावों के स्थिरीकरण के लिए उनकी अनुप्रेक्षा या पुनरावर्तन-यह क्रम चलता है तो अहिंसक व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है। ऐसे ही अन्य महत्त्वपूर्ण प्रयोग अहिंसा प्रशिक्षण की दृष्टि से सुझाये गये हैं। गति तत्वः प्रेरणा प्रोत्साहन मानवीय अर्हता को उजागर करने वाली महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में भी अहिंसा प्रशिक्षण को प्रस्तुति मिली। आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा-अर्हता का विकास ही जीवन की सिद्धि एवं उपलब्धि है। अर्हता किसी जाति, सम्प्रदाय या भूखंड की सीमा में नहीं बंधती । अहिंसा के प्रशिक्षण से अर्हता का विकास संभव है। इस क्षेत्र में अणव्रत शिक्षक संसद ने अहिंसा प्रशिक्षण के क्षेत्र में अच्छा काम किया है। सब जातियों और संप्रदायों के लाखों लोग अपने-अपने संप्रदायों से जुड़े रहकर मानवता का काम कर रहे हैं। ऐसे ही प्रेरणा और प्रोत्साहन से प्रशिक्षण के कार्य को बल मिलता रहा है।
अणुव्रत शिक्षक संसद द्वारा शिविर समायोजन की कड़ी में भगवान महावीर की तपोभूमि राजगिरि में आचार्य धर्मेन्द्र के मार्ग दर्शन में एक मासिक अहिंसा शिविर में 55 प्रशिक्षुओं ने भाग लिया। शिक्षक बहुल शिविरार्थियों के इस दल को अभिप्रेरित करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा-'शिक्षकों में अहिंसा प्रशिक्षण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि शिक्षकों का छात्रों से सीधा सम्पर्क रहता है। वे यदि जागरूक हों तो छात्रों के कोमल मस्तिष्क में सुसंस्कारों का आरोपण सुगम रूप में किया जा सकता है।' प्रशिक्षुओं ने अपने संस्मण के साथ निवेदन किया आतंकवाद, उग्रवादी तथा जातिवादी हिंसा की ज्वालामें पूरा बिहार धधक रहा है। ऐसी स्थिति में आपकी अहिंसा यात्रा एवं अहिंसा प्रशिक्षण से आशा की एक नई किरण स्फुरित हो रही है। प्रकटतः अनेक प्रान्तों के लोग अहिंसा प्रशिक्षण में रूचि ले रहे हैं। आवश्यकता इसी बात की है कि सभी अहिंसक शक्तियां मिलकर काम करें।
सकारात्मक परिणाम अहिंसा प्रशिक्षण की व्यापक संयोजना से परिवर्तन की दिशा में सकारात्मक सोच पैदा हुई है। सर्वोदय
320 / अँधेरे में उजाला