________________
से शरीरस्थ विद्युत-तन्त्र एवं प्राणधारा का संतुलन सधता है। परिणामतः तद्जनित समस्याओं से मुक्ति मिलती है । शरीर प्रेक्षा के तीन महत्त्वपूर्ण परिणाम हैं
प्राण-प्रवाह का सन्तुलन चैतन्य केन्द्र की निर्मलता आनन्द का जागरण ।
.
·
चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा
चरित्र, स्वभाव एवं व्यवहार के परिवर्तन में प्रस्तुत प्रयोग की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। चैतन्य - केन्द्रों एवं अन्तःस्रावी ग्रन्थितंत्र की परस्पर सह संवादिता है । अन्तःस्रावी ग्रंथियों का हमारे स्वभाव निर्माण में गहरा योगदान रहता है । एतद् विषयक प्रस्तुति डा. एम. डब्ल्यू. काप, एम.डी. ने अपनी पुस्तक 'ग्लैण्ड्स : अवर इनविजिबल गार्जियन्स' में दी है। उन्होंने लिखा- हमारे भीतर जो ग्रन्थियां हैं, वे क्रोध, कलह, ईर्ष्या, भय, द्वेष आदि के कारण विकृत बनती हैं। जब ये अनिष्ट भावनाएं जागती हैं, तब एड्रिनल ग्लैण्ड को अतिरिक्त काम करना पड़ता है। वह थक जाती है । और-और ग्रंथियां
अतिश्रम से थक कर श्लथ हो जाती है। 127 धीरे-धीरे उनके स्राव असंतुलित बन जाते हैं । परिणामतः अनेक भावनात्मक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं । अवसाद, डिपरेशन की स्थिति व्यक्ति को हिंसा में ले जाती है। हिंसात्मक स्थितियाँ अवसाद जनित तनाव के कारण होती है। चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा इस स्थिति से उबारने वाली प्रविधि है जो व्यक्ति के भीतर रासायनिक परिवर्तन घटित कर तन-मन से स्वस्थ बनाती है ।
हिंसात्मक प्रवृत्ति का बड़ा कारण है रासायनिक असंतुलन । विभिन्न ग्रन्थियों में पैदा होने वाले स्राव ही व्यक्ति के व्यवहार को संचालित करते हैं। योग के ग्रन्थ आत्म-विवेक में स्पष्ट उल्लेख है कि क्रूरता, वैर, मूर्च्छा, अवज्ञा और अविश्वास- ये सब स्वाधिष्ठान (एड्रीनल का भाग) में उत्पन्न होते हैं । तृष्णा, ईर्ष्या, लज्जा, घृणा, भय, मोह, कषाय और विषाद ये सब मणिपूर चक्र (नाभि ) में जन्म लेते हैं। लोलुपता, तोड़फोड़ की भावना, आशा, चिन्ता, ममता, दम्भ - अविवेक, अहंकार- ये सारे अनाहतचक्र (हृदय) में जन्म लेते हैं । विभिन्न केन्द्रों में पैदा होने वाले असंतुलित स्राव अनेक समस्याओं को पैदा करते हैं। मस्तिष्कीय प्रक्रिया इससे प्रभावित होती है और मस्तिष्क विक्षिप्त-सा हो जाता है-हिंसा की वृत्तियाँ जाग जाती हैं। चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा एक उपाय है रासायनिक संतुलन स्थापन
का ।
विभिन्न चैतन्य केन्द्रों पर किया गया प्रेक्षा का प्रयोग उनके आन्तरिक परिवर्तन का संतुलन स्थापन का मौलिक घटक सिद्ध होता है । स्वभाव परिवर्तन का सशक्त सेतु है दर्शन केन्द्र पर ध्यान का प्रयोग, जो पियूटरी के स्राव को संतुलित बनाता है । संकल्प को भीतर अन्तर्मन तक पहुँचाता है । जब संकल्प लेश्या - तंत्र और अध्यवसाय तंत्र तक पहुँच जाता है तो व्यक्ति में वांछित परिवर्तन घटित करता है। 28 ज्योतिकेन्द्र का ध्यान पिनियल, कंठ - विशुद्धि केन्द्र का ध्यान थाइराइड, तैजस केन्द्र का ध्यान एड्रीनल के स्रावों को संतुलित बनाता है। रासायनिक संतुलन की अपेक्षा से चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा हृदय परिवर्तन का महत्त्वपूर्ण आयाम है । महाप्रज्ञ के शब्दों में इसी अपेक्षा से ध्यान और अहिंसा का संबंध हमारी समझ में और गहरा बैठ जाता है । हिंसा का जो प्रबल सहायक तत्त्व है रासायनिक असंतुलन, उसे संतुलित करने का माध्यम है ध्यान। 129 चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा का प्रयोग वृत्ति परिष्कार, स्वभाव परिवर्तन एवं हृदय परिवर्तन की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है ।
हृदय परिवर्तन एक विमर्श / 333