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व्यक्ति में विकास हो तो एक नये विश्व की कल्पना, जिसमें शांति होगी, सहिष्णुता होगी, सामंजस्य होगा, संभव हो सकेगी।168
__महाप्रज्ञ का विराट् चिंतन भारतीय सीमाओं में बंधा हुआ नहीं था। दुनिया के किसी भी राष्ट्र ने अहिंसा के क्षेत्र में कदम बढ़ाया उसका अनुमोदन किया है। उन्होंने स्पष्ट कहा-हिंसा, आक्रमण, शस्त्र-ये सारे नश्वर तंत्र हैं। ये कभी स्थायी नहीं रह सकते। हमें साधुवाद देना चाहिए गोर्बाच्योव को, जिन्होंने संसार के सामने अहिंसा का प्रथम उपन्यास लिखा। इतना सुंदर उपन्यास कोई लेखक नहीं लिख सकता। अहिंसा के इस उपन्यास का लेखन कोई धार्मिक आदमी भी नहीं कर सकता, क्योंकि सारी शक्ति उनके हाथ में है जिनके हाथ में हिंसा की शक्ति है, वे अहिंसा की बात सोचें तब कुछ संभव हो सकता है।
.......यह इस युग की विशेषता माननी चाहिए-इस दुनिया में कुछ ऐसे लोग पैदा हुए हैं, जो अहिंसा की दिशा में सोचने लगे हैं। यह सबसे बड़ा आश्चर्य है-जिस राष्ट्र ने यह माना-साध्य की पूर्ति के लिए चाहे जैसा आलंबन लिया जा सकता है, उस राष्ट्र में अहिंसा का स्वर प्रखर हुआ है। साम्यवाद का सिद्धांत रहा-यदि साध्य ठीक है तो उसकी पूर्ति के लिए हिंसा पर विचार करना कोई जरूरी नहीं है। यह आस्था जिस राष्ट्र में थी, उसका स्वर बदला है, वह अहिंसा की भाषा में सोचने लगा है। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है। महाप्रज्ञ का यह उद्धरण अहिंसा के अनमोदन का प्रतीक
ससे यह भी उजागर होता है कि दनिया का कोई भी राष्ट्र अथवा उसका अधिकारी शांति की दिशा में कदम बढ़ाता तो महाप्रज्ञ अपनी सीमा में उसका अकन अवश्य करते। यह उनका अ अहिंसा प्रेम ही था जो उन्हें अहिंसा की प्रगति पर प्रफ्फुलित बनाता।
शांति का महत्त्वपूर्ण अंग है अहिंसा। इसका विकास प्रत्येक राष्ट्र कर सकता है। तथ्य की अवगति देते हुए महाप्रज्ञ ने सुझाया- 'जो राष्ट्र परस्पर युद्ध करते हैं वे ही राष्ट्र युद्ध के बाद परस्पर अनाक्रमण संधियां करते हैं। युद्ध के बिना भी अनाक्रमण की संधिया होती हैं, इसलिए कि समाज शांति में रह सके। शांति का आधार है अनाक्रमण और अभय की भावना का विकास। 189 यह राष्ट्रीय शांति का मंत्र है। जो राष्ट शांतिकामी हैं उन्हें बिना किसी संघर्ष के सामाजिक, राष्ट्रीय शांति को प्रशस्त बनाना होगा ऐसा घटित होने पर राष्ट्र में अहिंसा का विकास स्वतः घटित होगा।
अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भ गांधी की अहिंसक सोच केवल व्यक्ति, समाज और राष्ट्रीय संदर्भ में सीमित न रहकर अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र का विस्तार पा चुकी थी। उन्होंने कहा-अहिंसा साधन है और लक्ष्य हर एक राष्ट्र के लिए पूर्ण स्वाधीनता है। अन्तर्राष्ट्रीय संघ तभी होगा जबकि उसमें शामिल होने वाले बड़े-छोटे राष्ट्र पूरी तरह स्वाधीन हों। जो राष्ट्र अहिंसा को जितना हृदयंगम करेगा वह उतना ही स्वाधीन होगा। एक बात निश्चित है, अहिंसा पर आधार रखने वाले समाज में छोटे-से-छोटे राष्ट्र भी बड़े-से-बड़े राष्ट्र के समान ही रहेगा। बड़प्पन और छोटेपन का भाव बिल्कुल नहीं रहेगा।.....अहिंसा को केवल नीति के बजाय एक जीवित शक्ति अर्थात् अटूट ध्येय के रूप में स्वीकार न कर लिया जाय, तब तक मुझ जैसों के लिए, जो अहिंसा के हामी हैं, वैधानिक या लोकतंत्रीय शासन एक दूर का स्वप्न होगा। जब कि मैं विश्व में भी अहिंसा का हामी हूं, मेरा प्रयोग हिन्दुस्तान तक ही सीमित है। यह विचार उनके विराट् अहिंसा भाव को द्योतित करता है। वे जो अहिंसा का प्रयोग भारत के संदर्भ में कर
260 / अँधेरे में उजाला