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सत्याग्रह तपस्या है। उसका प्रहार यदि दूसरे व्यक्ति पर होता है तो वह सत्याग्रह नहीं हो सकता। उसका प्रहार अपनी शक्ति की प्रखरता के लिए होना चाहिए। जिस परिवर्तन के लिए सत्याग्रह किया जाता है, उससे संबंधित व्यक्ति का हृदय तपस्या की आँच के बिना नहीं पिघल सकता और हृदय का परिवर्तन हुए बिना सत्याग्रह की सार्थकता नहीं हो सकती। महात्मा गांधी ने सत्याग्रह को सामुदायिक प्रतिष्ठा दी।
सत्याग्रह संबंधी अपने मन्तव्य को अधिक स्पष्ट करते हुए महाप्रज्ञ ने लिखा-सत्याग्रह कोई आयास शस्त्र नहीं है। वह शस्त्रविहीन धार है। आयस शस्त्र को भी हर कोई नहीं चला सकता। जिसमें शरीर बल, मनोबल और प्रशिक्षण-तीनों होते हैं, वही उसे चला सकता है। सत्याग्रह की धार का प्रयोग वही कर सकता है, जो मनोबल, धृति, सहिष्णुता और करुणा से परिपूर्ण होता है। इस योग्यता का समुदाय न महात्मा गांधी को मिला और न किसी अन्य व्यक्ति को मिला। महात्मा गांधी सत्याग्रह के योग्य व्यक्ति थे। उनके कुछ सहयोगी भी उसके लिए उपयुक्त थे पर भीड़ की सत्याग्रह के लिए अर्हता नहीं हो सकती। हमारी दुनिया में बहुत बार अहिंसा के नाम पर हिंसा, सत्य के नाम पर असत्य और अच्छाई के नाम पर बुराई चलती है। वर्तमान में चलने वाले अधिकांश सत्याग्रहों में कोरा आग्रह ही चलता है। अनाग्रह के बिना सत्याग्रह उतना ही मिथ्या है, जितना कि असत्याग्रह। जिसमें अपने प्राणों का मोह नहीं है, जो दूसरे के प्रति प्रेम से परिपूर्ण है, जिसमें तटस्थता है-किसी भी पक्ष का आग्रह नहीं है, वह अहिंसक है और अहिंसक ही सत्याग्रही होने का अधिकारी है।
प्रशिक्षण और साधना के बिना सत्याग्रही का निर्माण नहीं हो सकता। कुछ लोग हिंसा-प्रेमी हैं और कुछ लोग सत्याग्रह-प्रेमी। गहरे में दोनों के प्रेम की जड़ एक है। अहिंसा के बिना सत्य सत्य नहीं हो सकता और सत्य के बिना अहिंसा अहिंसा नहीं हो सकती। दोनों की एकात्मकता ही दोनों को दो रूपों में प्रतिष्ठित करती है। महाप्रज्ञ के इन सत्याग्रह मूलक विचारों में अध्यात्म को नई दिशा देने की ताकत है।
विमर्शतः सत्याग्रह आंदोलन अहिंसा और सत्य की धुरा पर टिका है। इसकी प्रासंगिकता आज भी विद्यमान है। वैश्विक मंच पर घटने वाली अनेक समस्याओं का सटीक-स्थायी समाधान सत्याग्रह के आलोक में खोजा जा सकता है। अपेक्षा है इसके विशुद्ध स्वरूप के प्रयोग की। असहयोग आन्दोलन असहयोग आन्दोलन अन्याय, शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध नैतिक शक्ति के प्रदर्शन का एक सशक्त अहिंसक साधन है। इसका प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों एवं संदर्भो में औचित्यानुरूप किया जाता है। असहयोग का सीधा सा अर्थ है-अन्याय, पाप से अपने आपको हटा लेना, उसमें सहयोग नहीं करना। आत्म त्याग और बलिदान करने के लिए आत्म संयम का दूसरा नाम है-असहयोग। बुराई के प्रतिकार का यह एक शक्तिशाली अस्त्र है। यह शोधन की वैज्ञानिक प्रक्रिया है-स्व शुद्धि के द्वारा ही इसका प्रयोग किया जाता है। इसमें निष्क्रियता को कोई अवकाश नहीं यह प्रबल सक्रियता का द्योतक है। सक्रिय अहिंसक आत्मशक्ति के बगैर असहयोग की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस शक्ति का सामूहिक रूप से किया गया प्रयोग असहयोग आन्दोलन कहलाया। आजादी की पृष्ठभूमि में अहिंसक हथियार के रूप में इसका प्रयोग विशिष्ट था।
अहिंसा 'कुछ न करना' नहीं है। हम बुराई का प्रतिरोध इस ढंग से कर सकते हैं कि उसके
278/ अँधेरे में उजाला