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भावात्मक पक्ष में स्वदेशी आंदोलन के तहत खादी के कार्यक्रम को अपनाया गया। गांधी ने नारा दिया-'कातो चरखा मिले स्वराज। स्वयं सेवक सूत कातने लगे और खादी के वस्त्र पहनने लगे। खादी वस्त्रों की मांग के आदेश, बेचने और शुद्ध खादी-नकली खादी का प्रचार किया। खादी के
स्वरूप को देखकर ही उन्होंने कहा था-'चरखे के हर तार में शान्ति, सदभाव और प्रेम की भावना भरी है। इसके विस्तार एवं आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए गांधी ने खादी पर विशेष बल दिया। खादी के पुनरुद्धार में उन्होंने संबंधित अनेक घरेलू उद्योगों का पुनरुद्धार संभव पाया।
स्वदेशी आंदोलन का आधार गीता का 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः पर धर्मो भयावह' में पाते हैं। वही इसका दर्शन 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' में देखते हैं, अर्थात् स्वदेशी की शुद्ध सेवा में परदेशी की भी शुद्ध सेवा होती है।
स्वदेशी के विराट् स्वरूप का चित्रण गांधी ने विभिन्न संदर्भो में भिन्न शैली में किया पर समग्र दृष्टि से इसका मौलिक रूप मानवता की सेवा ही रहा। उनकी दृष्टि में स्वदेशी उच्च कोटि की आध्यात्मिक सर्वमुखी देशभक्ति है। यह एक महायज्ञ है जिसका प्रारंभ समाज कल्याण हेतु किया गया है। अतः स्वदेश और स्वराज एक ही सिक्के के दो पहलू है। इसके प्रति गांधी का उदार दृष्टिकोण था-स्वदेशी-धर्म पालने वाला परदेशी का द्वेष कभी नहीं करेगा। इसलिए पूर्ण स्वदेशी में किसी का द्वेष नहीं है। वह संकुचित धर्म नहीं है। वह प्रेम में से, अहिंसा में से निकला हुआ सुन्दर धर्म है।" इस मार्ग पर शुद्धनीति पूर्वक चलते हुए देश की जनता ने अपना मनोरथ सिद्ध किया।
वर्तमान के संदर्भ में स्वेदशी आंदोलन की प्रासंगिकता का प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। गांधी ने स्वराज की मांग के लिए विदेशी वस्त्रों के त्याग की बात और स्वेदशी को अपनाने के लिए आन्दोलन किया था। पर आज स्वतंत्र भारत में आजादी की रक्षा के लिए भी स्वदेशी आंदोलन की उससे अधिक आवश्यकता है। द्रुतगति से हो रहे वैज्ञानिक विकास, पाश्चात्यानुकरण, हिंसा-आतंक, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का फैलाव व अन्य शोषणकारी शक्तियों से निपटने और समय रहते सही कदम उठाने के लिए स्वदेशी की प्रासंगिकता आज भी बरकरार है।
आजादी के प्रसंग में स्वेदशी आंदोलन जितना महत्त्वपूर्ण था आज उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के बावजूद देश की जनता आर्थिक, मानसिक रूप से गुलामी का शिकार बन रही है। 'जो हो रहा है होने दे' यह मानसिक गुलामी का प्रतीक है। बेरोजगारी, बढ़ती हुई जनसंख्या, पर्यावरण प्रदूषण, गिरते हुए नैतिक मूल्यों की स्थिति में स्वेदशी आंदोलन को अधिक शक्तिशाली रूप से अपनाने की जरूरत है।
पूर्वाग्रह मुक्त निष्पक्ष भाव से चिंतन के क्षितिज पर स्पष्ट होता है कि स्वदेशी भावना राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, मानवीय एवं अध्यात्मिक सभी उदात्त विचारों को अपने में समेटे हुए है। इसी का अनुसरण कर गांधी ने अपने मिशन में सफलता हासिल की थी। पर आज देशवासियों के पाँव उस मार्ग से फिसलते नजर आ रहे हैं। भारतीय जनता में गरीबी एवं आर्थिक संकट के बादल छा रहे हैं इसका कारण है स्वेदशी के विशाल अर्थ को भुलाना। आज स्वदेशी भावना/आंदोलन को पुनः प्रतिष्ठित करने की जरूरत है। बढ़ती हुई अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा पर नियंत्रण इसी से संभव है।
तत्वतः स्वेदशी का अवलम्बन संस्कृति के उदात्त गुणों को विकसित करता है, परतंत्रता घटती है जिसकी बदौलत राष्ट्र प्रगति तथा शांति की दिशा में अग्रसर होते हैं। यदि विश्व का प्रत्येक राष्ट्र स्वदेशी का ईमानदारी से पालन करे तो सभी प्रकार के उपनिवेशवाद समाप्त होंगे साथ ही एक देश
अहिंसा का आंदोलनात्मक स्वरूप / 287