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की पहली मंजिल है, पर उसकी दृष्टि वहीं तक सीमित नहीं है, वह और आगे बढ़ती है। अन्याय, असत्य, हिंसा, उत्पीड़न और शोषण आदि अनुचित साधनों के द्वारा पदार्थ-संग्रह न करने की बात पवित्रता का पहला चरण है। इस संदर्भ में स्पष्ट दृष्टि है-सुख-सुविधा पाने के साधन दोषपूर्ण न हो, कभी न हो, किसी भी स्थिति में न हो। महाप्रज्ञ की यह मीमांसा अणुव्रत के लक्ष्य को उजागर करती है।
व्यक्ति सुधार से राष्ट्र सुधार का लक्ष्य मौलिक है। विश्व सुधार, राष्ट्र सुधार, समाज सुधार की कल्पना व्यक्ति सुधार पर की गई है। अणुव्रत आंदोलन व्यक्ति सुधार के द्वारा विश्वशांति की परिकल्पना करता है। आंदोलन के तहत् ‘सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से, राष्ट्र स्वयं सुधरेगा' मुखरित हुआ।
इसका लक्ष्य-अनीति, अनाचरण और अप्रामाणिकता से जर्जरित लोक जीवन में नीति, सदाचरण तथा प्रामाणिकता का संचार करना है। जन-जीवन में अधिकाधिक अहिंसा, अपरिग्रह, संतोष एवं संयम की चेतना जागत कर अन्तहीन भोगेच्छा पर नियंत्रण कर समस्या के सही समाधान व अहिंसा के विकास की प्रक्रिया प्रस्तुत करना है। ऐतिहासिक संदर्भ 'अणुव्रत एक त्रैकालिक सच्चाई है। अतीत में भी नैतिकता की जरूरत रही थी, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी रहेगी। इसके बिना कोई भी समाज सुख और शांति के साथ नहीं जी सकता, अभय होकर नहीं जी सकता।' महाप्रज्ञ के कथन को ऐतिहासिक संदर्भ में देखें तो भारतीय संस्कृति में व्रत की गौरवशाली परंपरा रही है। गीता का ‘अणुमपि व्रतस्य त्रायते महतो भयात्' इसका साक्षी है। व्रत का अर्थ है-किसी कार्य को करने या न करने का मानसिक निर्णय। व्रत इच्छा का स्वेच्छाकृत नियमन है। अणुव्रत शास्ता ने बताया 'अणुव्रत आंदोलन की आत्मा योग-त्याग या संयम है। इसलिए यह आध्यात्मिक है। भारत का मानस चिरकाल से आध्यात्मिक रहा है। भारतीय लोग जो शान्तिप्रिय हैं, उसका कारण उनकी आध्यात्मिक परंपरा है।' इस गौरवमयी परंपरा को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत किया गया।
भारतीय संस्कति त्याग प्रधान रही है। त्याग नकारात्मक होता है। सापेक्ष दृष्टि में निषेध व्यापक माना गया है और कर्म के साथ अनासक्ति का भाव जोड़ा गया है। दूसरों को न सताना, संग्रह न करना। नकार की सीमा जीवन-निर्वाह में बाधक नहीं बनती और बुराइयों से भी बचाव हो जाता है।......आत्मा को यानी स्वयं को बलवान् बनाने के लिए त्याग की चेतना का जागरण महत्त्वपूर्ण है। इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर इसे आंका जा सकता है। स्वरूप विमर्श किसी भी आंदोलन की महानता उसके स्वरूप पर निर्भर करती है। स्वरूप संयोजना उसकी विराट्ता का आइना है, जिसमें सफलता-असफलता को झाँका जा सकता है। विमर्थ्य घटक का सरल स्वरूप है-अणुव्रत, अर्थात् छोटे-छोटे नियम। व्रत मनुष्य को संताप से बचाता है। व्रत किसी व्यक्ति विशेष की बपौती नहीं है। इस पर सभी का समान अधिकार है। सामान्यतः व्रत को संकल्प भी कहा जाता है पर तत्वतः संकल्प व्रत से बहुत नीचे की स्थिति है। व्रत का अलौकिक स्वरूप है।
290 / अँधेरे में उजाला