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सत्याग्रहियों को गांधी का स्पष्ट आह्वान था - अपने शस्त्रागार में केवल सत्य और अहिंसा के ही शस्त्र रखें एवं उन्हीं का उपयोग करें। जो सत्याग्रह में शरीक होते हैं उन्हें हर हालत में हिंसा से अलग रहना है। ईंट-पत्थर नहीं फेंकने हैं और न किसी को किसी अन्य प्रकार से चोट पहुँचानी है । अपने साथी के पकड़े जाने या कैद की सजा दिये जाने पर शोक का या और किसी तरह का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए ।
सत्याग्रह के अर्थानुरूप सत्याग्रही की मीमांसा की गई कि इस लड़ाई में लड़ने वाले में सत्य का आग्रह- सत्य का बल होना चाहिए अर्थात् उस व्यक्ति को केवल सत्य के ऊपर निर्भर रहना चाहिए । एक पग दही में और एक पग दूध में रखने (अर्थात् दो नावों पर रखने) से काम न चलेगा। ऐसा करने वाला व्यक्ति ( शरीर बल और नैतिक बल के दो पाटों के बीच में कुचल जायेगा । सत्याग्रह कोई गाजर की पीपनी नहीं है कि वह बजेगी तो बजायेंगे और नहीं तो खा जायेंगे ।
सत्याग्रह शरीर - बल से अधिक तेजस्वी है और उसके सामने शरीर बल तिनके के समान है । सत्याग्रही तो अपने शरीर को कुछ भी नहीं गिनता । वह बाहरी हथियार नहीं बाँधता और मौत का डर रखे बिना अन्त तक लड़ता है । सत्याग्रही के लिए सबसे पहले सत्य का सेवन करना, सत्य के ऊपर आस्था रखना आवश्यक है। इस बात पर विशेष बल दिया गया कि सत्याग्रही अत्याचार में तो भाग ले ही नहीं सकता । उसको कुटुम्ब का मोह छोड़ना पड़ता है और पैसे का मोह त्याग करना होता है।
भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी सहन करनी पड़ती है । जो धर्म, दीन और ईमान की रक्षा उचित प्रकार से करता है वही सत्याग्रही हो सकता है । इसका अर्थ यह है कि जो मनुष्य सब कुछ खुदा या ईश्वर पर ही छोड़ देता है, उसको संसार में कभी हारना ही नहीं पड़ता। उसके पास हारने जैसा कुछ भी अपना नहीं होता पर जीतने के लिए सारी दुनिया होती है । उसका प्रेम बल उसे विजयी बनाता है। इसी दृढ़ विश्वास से सत्याग्रही अपने ऊपर होने वाले वैयक्तिक अन्याय के लिए झट सत्याग्रह करने नहीं जायेगा । छुट-पुट अन्यायों को वह साधारणतः सह लेगा और सहन करते-करते विरोधी को प्रेम से जीतने की कोशिश करेगा ।
गांधी ने इस पर बल दिया कि सत्याग्रही दृढ़ निश्चयी, आत्म-विश्वासी, नैतिक शक्तिवाला एवं अनुशासित हो । सत्याग्रहियों का आत्मानुशासन बना रहे इस दृष्टि से कुछ अनिवार्य हिदायतें दीं -
जुलूस न निकालें। • संगठित प्रदर्शन न हों। • पहले से समिति का आदेश प्राप्त किये बिना किसी भी कारण कोई हड़ताल न हो। • हिंसा न हो • ट्रामों के चलने या यातायात में कोई बाधा न डाली जाये। • किसी पर किसी भी किस्म का दबाव न डाला जाये ।
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सार्वजनिक सभाओं में तालियाँ न बजाई जायें। अनुमोदन या विरोध का प्रदर्शन न किया जाये । 'शर्म' 'शर्म' की आवाजें न कसी जायें। हर्ष ध्वनित न की जाये । पूर्णतया शांति रहे ।" गांधी द्वारा निर्मित इन नियमों का पालन प्रत्येक सत्याग्रही का आत्म धर्म था ।
सत्याग्रही होना सरल और कठिन दोनों है । सरल इसलिए है कि इसका राही बालक, रोगी, वृद्ध, गरीब, स्त्री-पुरुष कोई भी बन सकता था और बनें भी । कठिन इस दृष्टि से है आत्मशक्ति, सत्य- प्रेम और सघन देश भक्ति के बिना इस मार्ग पर नहीं चला जा सकता । अभय के बिना सत्याग्रही की गाड़ी एक कदम भी आगे नहीं चल सकती । ब्रह्मचर्य के पालन से ही सत्याग्रही की शक्ति शतगुणित बनती है। सत्याग्रही का स्वरूप अनेक प्रसंगों पर प्रकट हुआ अतः उसमें अनेक गुण-धर्मो का समावेश स्वाभाविक है ।
अहिंसा का आंदोलनात्मक स्वरूप / 275