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रहे थे उसको विस्तार देने की चाह रखते थे । उन्होंने कहा 'मेरा विश्वास है कि - विश्व संघ की रचना केवल अहिंसा की बुनियाद पर ही खड़ी की जा सकती है; और ऐसा करने के लिए हिंसा का पूरी तरह त्याग करना होगा।' स्पष्ट तौर पर विश्व संघ की कल्पना को आकार देने में अहिंसा की अहम भूमिका को स्वीकार किया। उनकी कल्पना जैसे राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसा की थी वैसी ही वैश्विक संदर्भ में थी ।
आचार्य महाप्रज्ञ ने विश्व व्यवस्था में अहिंसा की चर्चा करने से पूर्व राष्ट्रीय जनता का ध्यान वर्तमान स्थिति की ओर आकर्षित करते हुए कहा - 'महावीर, बुद्ध और गांधी के देश ने अहिंसा को भुलाया है। गांधी के समय ऐसा लगता था - हिन्दुस्तान अहिंसा के क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व करेगा । विश्वशांति और निःशस्त्रीकरण उच्चारण का पुरोधा बना रहेगा। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने विश्व पटल पर पंचशील प्रस्तुत किए। विश्वशांति की नई किरण ने जन्म लिया । पर क्या वर्तमान परिस्थिति में उनकी मुखर व्याख्या की जा सकती है?' इसके साथ ही पूरी दुनिया का ध्यान अनाक्रमणनिःशस्त्रीकरण की ओर खींचते हुए कहा - यह सच्चाई है कि अन्तर्राष्ट्रीय तनाव और शस्त्रीकरण ने मानव समाज को कुछ सोचने के लिए विवश किया है। इस विवशता से जो स्व-वशता निकली है, वह सुनहले भविष्य का संकेत है। 19 नवम्बर 1990 में जो अहिंसा का अभिलेख लिखा गया, वह इस युग के इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है । नाटो और वारसा संधि पर चौंतीस देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने युगान्तकारी निःशस्त्रीकरण संधी पर हस्ताक्षर कर शीतयुद्ध को अंतिम विदाई दे दी ।" यह उपक्रम सचमुच मानवता के शांति पथ को प्रशस्त बनाने एवं अहिंसा को नया आयाम देने वाला सिद्ध होगा । आर्थिक विषमता के चलते अहिंसा का विकास बाधित है। संयुक्त राष्ट्र की भूमिका अधिक सक्रिय बने तो वैश्विक समस्या को समाधान का नया रूप मिल सकता है। इस विषय में महाप्रज्ञ का कहना था कि आज संसाधनों पर नियंत्रण अपने-अपने राष्ट्र का है। अगर पेट्रोल अरब देशों के पास है तो उस पर उनका नियंत्रण है । अगर सारे खनिज अमेरिका में हैं, तो उन पर उसका नियंत्रण है । संयुक्त राष्ट्र संघ की अब तक जो भूमिका रही है, वह केवल शांति और सामंजस्य बिठाने की भूमिका रही है। अगर संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था को जागतिक अर्थनीति की भूमिका
भाने के लिए प्रोत्साहित किया जाये और वह नियंत्रण कर सके तो वर्तमान की समस्या को समाधान मिल सकता है। 182 कथन से यह अंदाज लगाया जा सकता है कि आचार्य महाप्रज्ञ वैश्विक स्तर पर भी समस्या के समाधान हेतु किस कदर अपना मौलिक चिंतन रखते थे ।
शांति की व्यापक प्रतिष्ठा आचार्य महाप्रज्ञ का जीवनव्रत बनीं। अपने कर्म और जीवंत प्रयत्नों से अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शांति को प्राणवान बनाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जिसके प्रेरक स्फुलिंग हैं - जैन भारती, लाडनूं 1988, 1995 एवं अणुव्रत विश्व भारती-राजसंमद 1991 में, 1998 में सरदारशहर तथा 1999 में दिल्ली में समायोजित अंतराष्ट्रीय शांति सम्मेलन । इन सम्मेलनों में औपचारिकताओं से ऊपर उठकर यथार्थ के धरातल पर ठोस निर्णय लिये गये । क्रियान्विति हेतु सभी संभागी संकल्प बद्ध बनें ।
विश्वशांति के निमित्त आहूत अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आचार्य महाप्रज्ञ ने अहिंसा - शांति प्रिय लोगों का ध्यान इस ओर केन्द्रित किया कि आज अहिंसा का कोई शक्तिशाली मंच नहीं है । अहिंसा के क्षेत्र में काम करने वाले लोग बिखरे हुए हैं । उनमें न कोई सम्पर्क है और न एकत्व का भाव है । परस्पर विरोधी विचार वाले राष्ट्रों ने संयुक्तराष्ट्र संघ को एक मंच बना लिया। वहाँ बैठकर वे
अहिंसा का राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप / 261