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को मखमली टोपियां अच्छी लगती हैं। कैसे बनती हैं ये टोपियां? न जाने कितने प्राणियों को सताया
और मारा जाता है तब ये निर्मित होती हैं। बढ़िया जूते, बढ़िया बैग, अमुक-अमुक बढ़िया उपकरण-इन सबके लिए हजारों-लाखों प्राणियों को क्रूरता से सताया जाता है, पीटा और मारा जाता है तब इन चीजों का उत्पादन संभव बनता है। आदमी इन प्राणियों की करुण आह से बने पदार्थों को सुख और सुविधा का कारण मानता है। यह कहना चाहिए-शक्ति का सिद्धान्त सार्वभौम है तो क्रूरता का सिद्धान्त भी सार्वभौम है।13 महाप्रज्ञ के प्रस्तुत विचार में तीखापन भले ही भाषित हो पर अर्थ के नैतिक पक्ष को उजागर करने में मौलिक हैं।
आर्थिक व्यवस्था के स्वरूप का चित्रण करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने बतलाया आर्थिक व्यवस्था का सबसे बड़ा सूत्र हो सकता है-पूरे समाज की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हो जाएँ। रोटी, कपड़ा, मकान, दवा और शिक्षा के साधन प्रत्येक व्यक्ति को सुलभ हो जाएँ। आर्थिक समानता की बात छोड़ दें।.......इतना हो सकता है-जीवन की प्रारम्भिक और मौलिक आवश्यकताएं सबको समान रूप से मिले। अपनी-अपनी विशेष योग्यता से व्यक्ति लाभ कमाए, उसमें दूसरों को आपत्ति न हो। रस्किन और गांधी का मत था-एक न्यायाधिकारी को जितना मिले उतना ही एक वकील को मिले। इसका मतलब है, जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके, उतना तो अवश्य मिले। यह बात भी तब तक सफल नहीं हो सकेगी, जब तक आर्थिक विकास के साथ-साथ आर्थिक संयम और भोगोपभोग के संयम की बात नहीं जुड़ेगी।
आर्थिक विकास पर बहुत बल दिया गया, अधिक उत्पादन, अधिक आय और समान वितरण इन पर ध्यान दिया गया, किन्तु इनके साथ दो बातों को जोड़ना चाहिए था-आर्थिक संयम और इच्छा का संयम। आज के अर्थशास्त्री आर्थिक विकास के साथ संयम की बात को जोड़ देते तो एक नया समीकरण बनता।14 मौलिक चिंतन के साथ कथन में यथार्थ का चित्रण है। आज का व्यक्ति, समाज व राष्ट्र केवल संग्रह करना जानते हैं, संयम की बात नहीं जानते। आज केवल आर्थिक व भौतिक विकास की बात पर बल दिया जाता है। नियंत्रण व संयम की बात पर नहीं, जो समस्या का बहुत बड़ा कारण है।
अर्थ जगत की समस्या से महाप्रज्ञ भली भाँति वाकिफ थे। उन्होंने कहा-मैंने तो सारे देश में घूम-घूम कर देखा है कि सबसे बड़ी कोई समस्या है तो वह है अनैतिकता की समस्या। अगर व्यापार जगत में, उद्योग जगत में राजनीति के तंत्र में और धर्मतंत्र में नैतिकता होती तो आज स्वतंत्रता के पचास वर्ष बाद भी गरीबी की समस्या मुँह बाएं खड़ी न होती, वह कभी की विदा हो चुकी होती। समस्या के मूल में भ्रष्टाचार का बोलबाल है। भष्टाचार तो केंसर की तरह है। इसे जितना जल्दी हो सके समाप्त करने की बात सराहनीय है। यह कोई शरीर से जुड़ा हुआ मसला नहीं है। यह सीधा दिल और दिमाग से ताल्लुक रखता है।
उद्योगपतियों में एक भावना जगे कि हम भ्रष्टाचार-मुक्त समाज की रचना में सहयोगी बनेंगे। ...दिशा और दृष्टि को बदलना है। स्थितियाँ अपने आप बदल जाएगी।
आर्थिक समस्या का मौलिक समाधान प्रस्तुत करते हुए बतलाया-अर्थ पर भी नैतिकता का अनुशासन, अहिंसा का अनुशासन और अध्यात्म का अनुशासन हो तो अर्थ भी समस्या पैदा नहीं करेंगा। अनुशासन के अभाव में अर्थ की लोलुपता इतनी बढ़ जाती है, जो आगे चलकर विभिन्न अपराधों को जन्म देती है....अर्थ की लिप्सा आदमी को उस स्तर पर ले जाती है, जहाँ एकमात्र
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