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परिकल्पना की है । आत्मानुशासन के प्रशिक्षण के बिना, अथवा अणुव्रत के प्रशिक्षण के बिना ऐसा समाज कभी संभव नहीं है
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स्वस्थ समाज में ही संवेदनशीलता, सहानुभूति तथा करुणा का विकास होता है।
स्वस्थ समाज-संरचना के लिए यह आवश्यक है कि आजीविका अपवित्र अर्थात् अप्रामाणिक न हो । जब भी आदमी अप्रामाणिक होता है तो उसके मन में बहने वाला करुणा का स्रोत सूख जाता है ।
स्वस्थ व्यक्ति ही स्वस्थ समाज का निर्माता होता है । व्यक्ति की स्वस्थता उसके आहार पर भी बहुत कुछ निर्भर करती । यह देखा गया है - जिन व्यक्तियों का आहार शुद्ध और सात्विक होता है, उनका विचार और व्यवहार भी सात्विक होता है । अतः सात्विक आहार तथा व्यसनमुक्त जीवन स्वस्थ समाज व्यवस्था के प्रमुख अंग है । 33 इनकी उपेक्षा कर समाज का वांछित विकास नहीं किया जा सकता। संपूर्ण भारत भ्रमण के दौरान महाप्रज्ञ ने समाज व्यापी विषमताओं को बारीकी से आंका और समाधान की शैली में बताया । स्वस्थ समाज निर्भर करता है नैतिक-आत्मिक गुणों के विकास पर । विकास के मानक हैं
1. अहं विलय की चेतना का जागरण ।
2. परस्परता की चेतना का जागरण ।
3. त्याग की चेतना का जागरण ।
4. अर्जन के साथ विसर्जन की चेतना का जागरण । 134
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इनके समुचित विकास से स्वस्थ समाज परिकल्पना को क्रियान्वित किया जा सकता है । अहिंसक समाज के प्रस्थान में एक महत्त्वपूर्ण आयाम है- सुविधावादी दृष्टिकोण में बदलाव । महाप्रज्ञ ने इंगित किया - हम प्रदूषण से चिन्तित हैं, त्रस्त हैं । सुविधावादी दृष्टिकोण प्रदूषण पैदा कर रहा है। उस पर हमारा ध्यान नहीं है । मैं मानता हूं, समाज सुविधा को छोड़ नहीं सकता; किन्तु वह असीम न हो, यह विवेक आवश्यक है। यदि सुविधाओं का विस्तार निरन्तर जारी रहा तो अहिंसा का स्वप्न कभी यथार्थ में परिणत नहीं होगा । हमें सुविधावादी दृष्टिकोण को समाप्त करना है, विचारों में मोड़ लेना है। उनका स्पष्ट मंतव्य रहा कि यदि हम यह चाहते हैं कि सामाजिक जीवन में अधिकतम अहिंसा या शांति हो, उपद्रव न हो, अपराध न हो, आक्रामक मनोवृत्तियां न हों, आतंकवाद न हो तो सुविधावादी दृष्टिकोण को बदलना होगा। दोनों बातें साथ नहीं चल सकती।'35 सुविधावाद अहिंसक समाज का बाधक तत्त्व है। इसके चलते व्यक्ति श्रम की संस्कृति को भूलकर केवल भोग-विलास में लिप्त होकर अपनी कर्मजा क्षमताओं को कुंठित कर देता है। इससे न केवल वैयक्तिक विकास अवरुद्ध होता है अपितु सामाजिक विकास पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। अतः सुविधावादी मनोवृत्ति के परिष्कार एवं श्रम-चेतना के जागरण से ही समाज उन्नति के साथ अहिंसा का वरण कर सकता है । स्वस्थ समाज का स्वरूप उसकी विकास प्रक्रिया को निर्धारित करता है । अहिंसक समाज में फलने-फूलने वाले तत्त्वों का सूत्रात्मक शैली में प्रतिपादन महाप्रज्ञ का किसी समाज शास्त्री से कम नहीं है। वे सूत्र हैं
1. अर्थार्जन के साधनों की शुद्धि
2. सत्ता का विकेन्द्रीकरण 3. मूल्यों की यथार्थता
अहिंसक समाज एक प्रारूप / 243