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में भी पुलिस की आवश्यकता होगी। लेकिन इस अहिंसक राज्य में पुलिस ऐसे व्यक्ति होंगे जो अहिंसा में पूर्ण आस्था रखते हों। वे जनता के सेवक होंगे, मालिक नहीं। जनता और पुलिस परस्पर सहयोग से शान्ति-व्यवस्था कायम रखेंगे। पुलिस के पास जो हथियार होंगे उनका प्रयोग किसी अत्यधिक असाधारण स्थिति में ही किया जा सकेगा। पुलिस शारीरिक शक्ति का प्रयोग कम-से-कम करेगी सिवाय ऐसे अवसरों को छोड़कर जहाँ अनिवार्य हो, जैसे कोई पागल खून करने पर आमौदा होकर दौड़ रहा हो। अहिंसक राज्य व्यवस्था के संबंध में महाप्रज्ञ का चिंतन यथार्थ को उद्घाटित करने वाला है। उन्होंने इस सच्चाई की ओर ध्यान केन्द्रित किया कि अपराध निरोध अथवा सुधार के लिए समाजशास्त्र, मानव शास्त्र, दण्ड शास्त्र, विधि शास्त्र आदि-आदि पर ध्यान केन्द्रित होता है, किन्तु अध्यात्मशास्त्र और योगशास्त्र की विस्मृति बनी रहती है। फलतः बाह्य उपचार होता रहता है। भीतरी शल्य तक नहीं जाया जाता।......यदि दंड-संहिता के साथ-साथ आध्यात्मिक शिक्षा का प्रयोग किया जाये तो अपराध की मात्रा में कमी आ सकती है। 50 वृत्ति परिष्कार के द्वारा समाधान की प्रक्रिया सुगम बन जाती है। लोकतंत्र और अहिंसा अहिंसा एक सार्वभौम प्रत्यय है जिसका संदर्भ विराट् है। यह केवल व्यक्ति अथवा सामाजिक जीवन को ही प्रभावित नहीं करती इसका संदर्भ अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज तक जुड़ा हुआ है। विभिन्न राष्ट्रों की उन्नति का अहिंसा आधारभूत तत्त्व है। किसी भी राष्ट्र को उन्नति के रास्ते पर जाना हो तो उसे सत्य और अहिंसा का आश्रय लेना चाहिए।' यह मार्ग गांधी की दृष्टि में निष्कंटक है। प्रयोग की भूमिका पर यह भले ही कठिन हो पर राष्ट्र का विकास इस प्रक्रिया से होता है वह मौलिक है। लोकतन्त्र प्रणाली को अहिंसा-सत्य की भूमिका पर सही आकार मिले। राष्ट्रीय संदर्भ में गांधी ने कहा- 'मैं यह मानता हूँ कि अहिंसा को राष्ट्रीय पैमाने पर स्वीकृत किये बिना वैधानिक या लोकतन्त्रीय शासन जैसी कोई चीज नहीं हो सकती। इसीलिए मैं अपनी शक्ति को इस बात का प्रतिपादन करने में लगता हूँ कि अहिंसा हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय जीवन का नियम है। मैं समझता हूं कि मैंने प्रकाश देख लिया है, यद्यपि वह कुछ धुंधले रूप में ही है।151 लोकतन्त्रीय शासन की पृष्ठभूमि में अहिंसा की महनीय भूमिका स्वीकार की।
उनकी यह घनीभूत आस्था थी कि सच्चे लोकतंत्र का ढांचा अहिंसा के आदर्श पर ही खड़ा किया जा सकता है। उन्होंने कहा लोकतंत्र और हिंसा का मेल नहीं बैठ सकता। जो राज्य आज नाममात्र के लिए लोकतंत्रात्मक हैं उन्हें या तो स्पष्ट रूप से तानाशाही का हामी हो जाना चाहिये, या अगर उन्हें सचमुच लोकतंत्रात्मक बनना है तो उन्हें साहस के साथ अहिंसक बन जाना चाहिये। यह कहना बिलकल अविचारपर्ण है कि अहिंसा का पालन केवल व्यक्ति ही कर सकते हैं. और राष्ट-जो व्यक्तियों से ही बनते हैं-हरगिज नहीं। 52 जाहिर है वे लोकतंत्र को अहिंसा की नींव पर खड़ा करना चाहते थे। इस अभिमत की सकारात्मक पुष्टि आचार्य महाप्रज्ञ के विचारों में झलकती है। उन्होंने लोकतंत्र की राष्ट्रीय प्रणाली के आदर्श को इंगित करते हुए लिखा 'हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति और लोकतंत्र में विरोधाभास है। लोकतंत्र हो और नैतिक मूल्यों का विकास न हो, यह सम्भव नहीं। लोकतंत्र हो और प्रामाणिकता तथा दायित्वबोध न हो, यह सम्भव नहीं। लोकतंत्र हो और अहिंसात्मक प्रतिरोध की शक्ति न हो, यह सम्भव नहीं।' इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि महाप्रज्ञ के लोकतंत्र
252 / अँधेरे में उजाला