________________
बचपन से ही अहिंसा की इस आस्था का निर्माण-'सब जीव समान है, मनुष्य वैसा ही है जैसा मैं हूँ और जैसा मैं हूँ वैसा ही दूसरा मनुष्य है' किया जाये। इस आस्था के निर्माण की पृष्ठभूमि में आचार्य महाप्रज्ञ ने दो महत्त्वपूर्ण सूत्रों का उल्लेख किया
1. धारणा या भावना का परिवर्तन 2. प्रेम या मैत्री का विकास।
हिंसा का मूल है-घृणा। जब तक घृणा पैदा नहीं होती, आदमी हिंसा नहीं कर सकता। लड़ना होता है, युद्ध करना होता है तो सामने वाले के प्रति घृणा पैदा की जाती है। यदि यहूदी जाति के प्रति घृणा पैदा नहीं की जाती तो लाखों यहूदियों को बिना मौत नहीं मारा जाता। पहले घृणा पैदा की जाती है और फिर हिंसा की जाती है। आज भी जितना आतंकवाद चल रहा है वह सारा घृणा के आधार पर चल रहा है। प्रेम उत्पन्न होने पर कोई किसी को सता नहीं सकता। प्रेम उत्पन्न करना, प्रेम का विकास करना, मैत्री का विकास करना, यह अहिंसा का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। कबीर ने यहां तक लिखा
'पोथा पढ़-पढ़ जग भया, पंडित भया न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।' आज की समस्या का, हिंसा की उग्र घटनाओं का मूल कारण है इस प्रेम के आदर्श को भूलाना।।23 व्यापक जन संपर्क के आधार पर आचार्य महाप्रज्ञ का यह मन्तव्य बना कि प्रेम, मैत्री, करुणा के आदर्श को प्रतिष्ठित करके ही अहिंसक समाज संरचना का आंशिक सपना पूरा किया जा सकता है।
आध्यात्मिक विकास में अहिंसा की सूक्ष्मतम साधना का मनन धार्मिक जगत् का मान्य विषय है। पर अहिंसा को स्वस्थ समाज, नैतिक समाज संरचना में अनिवार्य तत्त्व के रूप में गांधी और महाप्रज्ञ ने समान रूप से स्वीकारा है। धर्म के क्षेत्र में अहिंसा का प्रतिपादन जितना सच है उतना ही व्यावहारिक, सामाजिक जीवन को आनन्दमय बनाने के लिए अहिंसा का आचरण अनिवार्य है। इस संबंध में महाप्रज्ञ का मंतव्य है कि राग-द्वेषमक्त चेतना अहिंसा है। यह धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप है। जीव की हिंसा नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, परिग्रह नहीं रखना-यह धर्म का नैतिक स्वरूप है। राग-द्वेषमुक्त चेतना आत्मिक स्वरूप है। वह किसी दूसरे के प्रति नहीं है और उसका सम्बन्ध किसी दूसरे से नहीं है। जीव की हिंसा नहीं करना-यह दूसरों के प्रति आचरण है। इसलिए यह नैतिक है। नैतिक नियम धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप से ही फलित होता है। इसका उदय धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप ही है। इसलिए यह धर्म से भिन्न नहीं हो सकता।
हर्बर्ट स्पेन्सर और थॉमस हक्सले तथा आधुनिक प्रकृतिवादी और मानवतावादी चिंतकों ने धर्म और नैतिकता को पृथक् स्थापित किया है। यह संगत नहीं है। जो आचरण धर्म की दृष्टि से सही है, वह नैतिकता की दृष्टि से सही है, वह नैतिकता की दृष्टि से गलत नहीं हो सकता। धर्म अपने में और नैतिकता दसरों के प्रति-इन दोनों में यही अंतर है। किन्त इनमें इतनी दरी नहीं है जिससे एक ही आचरण को धर्म का समर्थन और नैतिकता का विरोध प्राप्त हो। धर्म का तत्त्व अहिंसादि व्यक्ति में जितना सघन होगा समाज का ढांचा उतना ही सबल होगा। व्यक्ति-व्यक्ति का आचरणव्यवहार ही सामाजिक संदर्भ में कार्यकारी बनता है। अतः स्वस्थ समाज संरचना में महाप्रज्ञ अहिंसादि नैतिक मूल्यों का होना अनिवार्य मानते थे। वे कहते हैं व्यक्ति और समाज दो हैं। अनेकान्त की
238 / अँधेरे में उजाला