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कि एक चीज बनती है तो उसके साथ एक समस्या भी उत्पन्न हो जाती है । हर निर्मिति एक समस्या को उत्पन्न करती है । परिवार के साथ भी समस्या है क्योंकि व्यक्ति की सारी ममता अपने परिवार में केन्द्रित हो गयी। सबकी सीमा परिवार में सीमित हो गयी । जहाँ स्व से इतर आ गया तो उसके लिए सब कुछ करणीय है, जो यथार्थ में अकरणीय है। इसलिए परिवार की सबसे बड़ी समस्या है- स्वत्व की सीमा। यहां स्वत्व सीमित हो जाता है, सिमट जाता है, अपनत्व, ममत्व या प्रेम इतना विराट् नहीं रह पाता, सबके प्रति नहीं रह पाता, किन्तु वह परिवार - केन्द्रित हो जाता है । यह एक बहु बड़ी समस्या है।" यह कटु सत्य का उद्घाटन है जो अहिंसा के क्षेत्र में विकास करने वालों को सोचने के लिए विवश करता है और परिवार के संदर्भ को विराट् स्वरूप में बदलने की प्रेरणा भरता है ।
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परिवार विघटक घटक
पारिवारिक विघटन में क्रोध का आवेश एक मुख्य तत्त्व है । वैसे ही अहंकार की भी पारिवारिक विघटन में कम भूमिका नहीं है । एक व्यक्ति का अहंकार समूचे परिवार की स्थिति को गड़बड़ा देता है । अहंकारी व्यक्ति दूसरों की बात को सुनता भी नहीं है, मानता भी नहीं है। वह अपनी अहंकारी वृत्ति को ही पोषित करता है । उसके अपने मन में जंचता है, वही करता है । अहंकार का आवेश बड़ा भयंकर होता है। अहंकारी मनुष्य में पुरुषार्थ कम होता है, अकर्मण्यता ज्यादा होती है, निठल्लापन ज्यादा होता है । जब अहंकार जागता है, आदमी का पुरुषार्थ सो जाता है । क्रोध और अहंकार - दोनों प्रकार के आवेश व्यक्ति को गिराते हैं। आवेश कभी जोड़ता नहीं, तोड़ता है । अहंकारी आदमी अपनेआपको ही श्रेष्ठ मानकर चलता है । वह कैसे जोड़ेगा? जहाँ मैं श्रेष्ठ हूँ और दूसरे अपकृष्ट हैं, हीन हैं, वहाँ दूसरे लोग कैसे जुड़ेंगे ?
सामुदायिक चेतना के न जागने में, पारिवारिक विघटन में लोभ का हाथ भी कम नहीं है । एक व्यक्ति के मन में लोभ जागता है, सब-कुछ टूटना -बिखरना शुरू हो जाता है। लोभ के कारण आदमी सारी सफलताओं से भी वंचित रह जाता है । दूसरे का आगे आना उसे पसंद नहीं आता । वह स्वयं ही सब कुछ पाना चाहता है । यह लोभ की वृत्ति अपना सेहरा सबसे ऊँचा रखना चाहती है । सामुदायिक चेतना के जागरण में लोभ का आवेश एक बहुत बड़ा विघ्न है । परिवार के विघटन
भी यह बहुत बड़ा कारण बनता है । पाँच-दस आदमी एक साथ कार्य कर रहे हैं, काम ठीक चल रहा है, अच्छी कमाई है, पर एक आदमी के मन में एक सनक आती है, लोभ जागता है और वह छिपे - छिपे अपना घर भरना शुरू कर देता है, बिखराव शुरू हो जाता है, लड़ाई-झगड़े शुरू हो जाते हैं । कोई लाभ नहीं रहता । यह लोभ लाभ को भी गंवा देता है । जहाँ लोभ बढ़ता है, वहाँ लाभ की हानि शुरू हो जाती है ।" ये वृत्तियाँ केवल शांति को ही भंग नहीं करती अपितु परिवार में हिंसा
नई चिनगारियों को भी सुलगा देती है। साथ ही असहिष्णुता, असंयम और महत्त्वकांक्षा-ये पारिवारिक जीवन में अशांति का विष घोल देते हैं । सहिष्णुता और संयम का अभ्यास, महत्त्वाकांक्षा का परिसीमन जैसे नैतिक मूल्य पारिवारिक जीवन में होने वाली हिंसा पर नियंत्रण स्थापित करते हैं ।
पारिवारिक संघर्ष का बड़ा कारण है निषेधात्मक दृष्टिकोण । परिवार के जिन सदस्यों की सोच निषेध प्रधान होती है वो सर्वत्र स्खलनायें देखते हैं और लड़ाई-झगड़ों में लगे रहते हैं । यह अपने आप में हिंसा का सूक्ष्म रूप है। इससे बचने के लिए निषेघात्मक भावों को समाप्त करना एवं विधायक भावों को उजागर करना होगा। 78
218 / अँधेरे में उजाला